थकान और अधूरी झपकी
प्रियंवदा !
नींद आ रही है। शाम के छह ही बज रहे है अभी तो। दरअसल एक अधूरी झपकी इसका कारण है। मैं तो हूँ ही अधूरी कारीगरी का कलाकार। कोई काम पूरा करने में तो मुझे बड़ी आलस आती है। आलस भी, और नीरसता भी। कोई काम मैं शुरू तो तुरंत कर देता हूँ, लेकिन बात आती है, जब उस काम में लगने वाले समय की। तो मेरे कदम डगमगाने लगते है। आज बैंकिंग से जुड़ा एक काम हाथ में आया था। हाथ में क्या, यह मुझे ही करना होता है। बैंक वालों के अपने टर्म्स होते है, अपनी भाषा।
बैंकिंग का झंझट और धैर्य की परीक्षा
मुझे नई चीज सीखने में ज्यादा समय तो नहीं लगता है, लेकिन जब वह धीरज वाला काम हो, तो मेरी छटपटाहट चरम पर होती है। इंतजार करना मुझे आता ही नहीं है। मुद्दा ऐसा था, कि इम्पोर्ट्स के काम में कुछ पेमेंट करनी थी। इस काम में कुछ समय मर्यादाएं होती है। और सबसे बड़ी बात थी कि यह काम मैं पहली बार कर रहा था। बैंक से बात करने पर उन्होंने कुछ प्रोसेस करने को बताया।
लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ पा रहा था, कि वह प्रोसेस कर तो दूँ? लेकिन कैसे, मतलब कहाँ? बैंक में जाकर, या उनके ऑनलाइन पोर्टल पर.. बड़ी बात यह भी थी, कि एक बैंक में कितने सारे डिपार्टमेंट्स होते है। इस काम में एक साथ तीन अलग अलग डिपार्टमेंट के साथ टच में रहना था। ऊपर से यह भी एक समस्या थी, कि समय मर्यादा पूरी हो जाने पर एक अच्छा खासा लोस्स लेना पड़ता।
छटपटाहट, स्ट्रेस और इंतज़ार का बोझ
बैंक वाले जब ढंग से कुछ समझा नहीं पाए, तो फिर मैंने एक्सपर्ट ओपिनियन का सहारा लिया। उन्होंने खुद यह पूरी प्रोसेस कर दी मुझे। अच्छे से समझ आ गया। लेकिन उसके बाद भी मामला काफी अटपटा था। अपनी एन्ड से काम हो चूका था, और बैंक की एन्ड से प्रोसेस पूरी होनी थी। लगभग ग्यारह बजे से लेकर दोपहर के डेढ़ बज गए। यह ढाई घंटे का समय मेरे लिए इतना ज्यादा स्ट्रेस्फुल रहा था, कि उसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है।
सांझ की नींद और पलकों की भारीपन
इस एक काम में ही दोपहर हो गयी थी। लंच के बाद दूसरा काम शुरू किया। उसने पौने घंटा और खा लिए। अब इसके बाद आने लगी नींद। तो कुर्सी पर ही बैठे बैठे एक बढ़िया झपकी ली तो सही, लेकिन यह अधूरी झपकी अब आँखे भारी कर रही है। लगता है, जैसे पलकों पर पत्थर बांध दिए हो। जबरजस्ती पलकें उठाये बैठा हूँ। यह शायद स्ट्रेस के कारण, या फिर खेलों के कारण हुई थकान का नतीजा है।
रोडट्रिप का हिसाब और हकीकत का सामना
दोपहर बाद खाली समय मिला, तो मैंने एक पोस्ट पूरी की। मैं यह महाराष्ट्र रोडट्रिप पर गया था, उस ट्रिप का रियलिटी चेक के बारे में यह पोस्ट थी। क्या सोचा था, और क्या हुआ.. इसी विषय के इर्दगिर्द यह पोस्ट थी, और कुल खर्च का हिसाबकिताब भी। हमने जो निर्धारित किया था, उससे कम में यह ट्रिप पूरी हो जानी थी, लेकिन हुई नहीं। ऐसे हिसाब किताब से ही पता चलता है, हमने क्या हासिल किया है।
आजकल छह बजे से अँधेरा होना शुरू हो जाता है। और ठण्ड भी.. आज एक जन दिखा, सर्दियों वाला जैकेट पहने हुए। और आज तो एक कार वाला टक्कर भी मार जाता। बस बेंतभर की दूरी से अकस्मात रूक गया। कार वाला तो गाली सुनने के लिए भी न रुका। मन तो हुआ कि उसका पीछा करूँ, उसे रोकू, और बस कूट दू उसे.. लेकिन उसकी स्पीड बहुत ज्यादा थी।
फ़िलहाल सात बज रहे है। मुझे कोई टॉपिक मिल नहीं पा रहा है। आज प्रेम को घसीटना नहीं चाहता। ग्लोबल गेम से अब थोड़ी परहेज़ी कर रहा हूँ। वो ट्रंपुद्दीन चचा ने जब से जगत-जमादारी संभाली है, अपना तो इंट्रेस्ट ही खत्म हो गया है ग्लोबल गेम से। अरे क्या भरोसा उसका.. मेरे ब्लॉग पर टेर्रिफ लगा दे.. उसका बस चले तो वह भारतियों के उबासी लेने के बहाने भी टेर्रिफ की तलवार चला दे।
स्मृतियों का सागर और दिल की लहरें
स्मृति.. इस एक शब्द में कितना बड़ा महासागर छिपा है। स्मृति के महासागर में मोती समेटे सीपियाँ भी है, तो क्षार भी। स्मृति की परतों में सागर सी लहरें है। कभी कोई लहर मुझे मैदान में बैठकर लिखी कईं पोस्ट्स पर ले जाती है, तो कभी कोई लहर चौक में अंगीठी सेंकते हुए लिखे गए भावों तक। कभी कोई लहर कितनी ही परतों तले दबे पुराने गीत के साथ उभरते चेहरे तक ले जाती है। तो कभी कोई लहर किसी मोड़ पर दिखी किसी की झलक तक।
जैसे कोई बच्चा समंदर की रेत में दबी सिप्पियाँ खोजता हो, उसी तरह कुछ यह स्मृतियाँ छनती है। स्मृतियाँ जब छा जाती है, ज़िन्दगी की रफ़्तार जैसे अचानक से धीरी हो जाती है, और शब्दों को समय मिल जाता है, अपने अर्थों को समेटने का। अभी लगता है, जैसे भाग रहे है, लोग, ख्याल.. जैसे कोई नोटिफिकेशन्स आ जा रही हो।
प्रियम्वदा — बचपन की पुकार और अधूरे भाव
कभी मन करता है, रुक जाने को.. तुम लौट आओ प्रियम्वदा, उसी सुकून के साथ.. जिसे हमने कभी बचपना कहा था.. मैंने तो कहा ही है.. आज भी कहता हूँ.. वह बचपना ही था.. स्मृतियों में लिप्त हुआ। जो कुछ कह न सका था, वह आज भी बसा हुआ है.. कितना अजीब है न..!
बाहर का सारा शोर अब धीरे धीरे शांत होते जा रहा है। मुझे अभी याद आया, कितने ही दिनों से बाहर वाले नीम पर संध्या समय को होती चिड़िया के कलशोर सुनाई नहीं पड़ते अब। लगातार विकास को खींचते यह ट्रक्स के इंजिन्स की आवाजें ही एकमात्र सुनाई पड़ती है। और अभी सुनाई पड़ रहा है, नेपाली में बोलते यह दो बहादुर की बातें.. और यह अनेकों रक्तपिपासु मच्छरों की गुनगुनाहट.. मोबाइल भी आजकल शाम होते ही साइलेंट हो जाता है। नोटिफिकेशन्स भी ठहर जाती है कहीं, साँस भरने को शायद।
खिड़की से दीखता यह चाँद आसमान से एक मात्र प्रकाश का दाता बना बैठा है। भले ही वह किसी और के प्रकाश को पहुंचाता बिचौलिया है। लेकिन चंद्र से आता प्रकाश सौम्य तो है। सूर्य की भाँती आग तो नहीं उगलता.. कुछ लोग आग उगलते है, जैसे सब कुछ ही जला देना चाहते है। उन्हें चंद्र की शीतलता का अंदाज़ कहाँ?
शुभरात्रि।
१०/११/२०२५
|| अस्तु ||
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