“अटेन्शन की भूख — सोशल मीडिया के दौर में ध्यान और आत्म-संतोष की तलाश” || दिलायरी : 08/11/2025

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सोशल मीडिया के दौर में ध्यान और आत्म-संतोष की तलाश

    प्रियम्वदा !
    आलस नहीं करनी चाहिए, यह बात मैं मानता जरूर हूँ, लेकिन उसका अमल नहीं कर पाता हूँ। सवेरे आठ बजे तक कईं बार जगाये जाने के बाद उठा हूँ। और इस चक्कर में आज ऑफिस पहुँचते-पहुँचते दस बज गए थे। दस तो आज वैसे भी बज ही जाने थे। क्योंकि आज कुँवरुभा को स्कूल में छुट्टी थी, उनका रिजल्ट था। एक तो मुझे यह नहीं समझ आता, कि जिन बच्चों से अपने पेण्ट की ज़िप नहीं खोली जाती, वे भी टेस्ट (एग्जाम) दे रहे है। 

    पहले मैं अकेले चल पड़ा, तो मेडम बोली, लड़के को भी साथ ले आइए, एक सर्टिफिकेट देना है, तो फोटो खींचनी है। वापिस घर गया, कुँवरुभा को तैयार करवाया, और फिर से स्कूल। वे थोड़े समय पहले स्कूल के प्ले में हनुमानजी बने थे, तो इसी बात का यह सर्टिफिकेट था। अब इस पांच रूपये के कागज़ के लिए मुझे दो बार धक्का खिलवाया इन लोगो ने। यह कहाँ काम आना है? जीवन सर्टिफिकेट पर निर्भर है, उससे ज्यादा अनुभव पर निर्भर है। सर्टिफिकेट्स तो मात्र एक कागज़ का टुकड़ाभर है बस।

एक शांत व्यक्ति, जिसके चारों ओर मोबाइल स्क्रीन और लाइक आइकन तैर रहे हैं — सोशल मीडिया से दूर, आत्म-संतोष की खोज में।

ध्यान की भूख — एक स्वाभाविक मानवीय भावना

    सवेरे ऑफिस आकर ढेर सारे काम बाकी थे, लगा निपटाने। एक के बाद एक निपटाते हुए एक बज गया। लंच करके लग गया एक पोस्ट पर। एक पोस्ट लिख रहा हूँ, देखते है कब तक पूरी करूँगा उसे। खेर, आज एक विषय पर आधारित लिखने का सोच रहा हूँ, लेकिन समस्या यह है, कि साढ़े सात तो बज गए। आधे घंटे में क्या ही लिख पाउँगा? विषय जाना पहचाना है। "अटेंशन"...

    मैं कभी लाइफ अप्डेट्स को स्टोरीज़ पर नहीं चढाता हूँ। बहुत कम प्रसंग ऐसे हुए होंगे, जब मैंने कभी कोई स्टेटस रखा हो। व्हाट्सएप्प पर तो शायद कभी नही। साल में दो-तीन स्टेटस चढाता होऊंगा। ज्यादातर लोग स्टेटस वगेरह क्यों रखते है? अटेंशन के लिए। या फिर उनकी लाइफ में क्या चल रहा है, उससे सबको अपडेट करने के लिए। वैसे यह दूसरों को अपने बारे में अपडेट करवाना भी अटेंशन ही हुआ। बहुत कम लोग है, जिनका आज भी प्रोफाइल पिक्चर बदला नहीं है। ज्यादातर लोग अपना प्रोफाइल फोटो समय समय पर बदल देते है। कुछ नयापन दिखाने की कोशिश करते है। मेरा यकायक ध्यान गया, मैंने तो वर्षों से अपनी फोटो बदली ही नही है।

    अटेंशन मतलब ध्यान आकर्षित करना, और यह एक मानवीय सहज भावना है। हर कोई चाहता है, उसे सुना जाए, देखा जाए, महसूस किया जाए। अटेंशन की भूख हमारे अस्तित्व के स्वीकार की चाह मात्र है। हम चाहते है, कि हमारा भी पॉइंट ऑफ़ व्यू.. दृष्टिकोण उतना ही मायने रखता है, जितना किसी और का। हम भी उसी भीड़ में शामिल है, लेकिन सबसे अलग है, यूनिक है। बचपन में बच्चे अक्सर माता-पिता का ध्यान खींचने की कोशिश करते है। वैसे ही बड़े होकर हम सारे समाज का ध्यान खींचने की कोशिश करते है। 

सोशल मीडिया ने इस भूख को और तेज़ कर दिया

    यह अटेंशन की भूख का राक्षस तब और बड़ा हो गया, जब यह सोशल मीडिया मैदान में उतरा। लाइक्स, व्यूज़, फॉलोवर्स - आत्मसम्मान के पैमाने बनते गए। ज्यादा लाइक माने ज्यादा अटेंशन। लोग अपनी तरह तरह की फोटोज डालने लगे। धीरे धीरे फोटोज के पोज़ भी बदलते गए। पहले ज्यादातर लोग अपने हाथ बांध कर, या कमर पर हाथ टीकाकर फोटोज खिंचवाते थे। फिर बैकग्राउंड में गार्डन्स दिखने लगे। फिर पोज़ के बदले टेढ़ेमेढ़े फोटोज क्लिक होने लगे।

    लेकिन यह सोशल मीडिया का अटेंशन बड़ा घातक भी है। जिन्हे देखा जा रहा है, जिन्हे व्यूज़ मिल रहे है, वे तो है सातवें आसमान पर। लेकिन जिन्हे नहीं देखा जा रहा है, या जिनके फोटोज़ पर कम व्यूज़ आते है, उनकी हानि स्वरुप सबसे पहले बलि चढ़ती है, आत्मविश्वास की। वे लोग जिन्हे सोशल मीडिया पर अटेंशन कम मिल रहा है, वे खुद को कमतर आंकने लगते है। यह डिजिटल मान्यता असली आत्मविश्वास को खाती जा रही है। मैं भी इन्ही लोगो में शामिल हूँ, सोशल मीडिया के अटेंशन भूखे लोगों में।

दिखावे और अस्तित्व का टकराव

    दिखावा.. यह सोशल मीडिया का दिखावा - इस 'दिखाने' के चक्कर में इंसान इतना डूब गया है, कि 'होने' से दूर हो गया है। वह अपनी अन्य काबिलियतों को भूल चूका है। किसी का चेहरा अच्छा है, लेकिन उसके फोटो को निखारना किसी और की काबिलियत है। उस फोटो को सोशल मीडिया पर अटेंशन दिलाना किसी और की काबिलियत है। दिखावा हमेशा से अस्थायी सुख जरूर से देता है, लेकिन भीतर के खालीपन को भर पाने का सामर्थ्य उसमे कहाँ? 

    वह सामर्थ्य हमारे ही अंदर है, लेकिन बात फिर वहीं जाकर अटक जाती है, कि हमारी काबिलियत कुछ और थी, हम अच्छा फ़ोटो क्लिक कर सकते है, हमे सोशल मीडिया स्ट्रेटेजी अच्छी आती है। लेकिन हम अटक गई है वहां, कि हमारी खुद की फ़ोटो पर लाइक्स कम आ रहे है। यह खुद की पुकार, खुद को अटेंशन देने की पुकार हम भीतर से यदि सुन लेते है, तो फिर बाहरी ध्यान मांगने की वास्तव में जरूरत रहती नहीं। दूसरों की नज़रों में जीना, दूसरों के अनुसार जीना, अपने आप को - अपने भीतर मरने समान है। 

ध्यान नहीं, अर्थ की तलाश ज़रूरी है

    असल में तो हमें ध्यान की जरुरत नहीं होती, हमे समझे जाने की जरूरत होती है। कोई सच्चाई बताने वाला होना चाहिए, जो हमारे हुनर से हमे रूबरू करवाए। जैसे हनुमान को जांबवान ने याद दिलाया था। ज्यादातर अटेंशन के पीछे एक ही पुकार होती है, 'मुझे समझो'.. लेकिन यह पुकार इतनी धीरी होती है, कि लोग और शोर-शराबे से अपना ध्यान इस और दे नहीं पाते। ऐसे में आत्मविश्वास का पुनः स्थापन होना जरुरी है। सारे प्रश्नों का उत्तर भीतर है। लेकिन समस्या वही है, हमें बाहरी मान्यताओं की बहुत ज्यादा लत लगी रहती है। 

आत्म-संतोष ही असली तृप्ति है

    जो स्वयं में पूर्ण होता है, उसे बाहरी तालियां नहीं चाहिए होती है। उसे बस शांति चाहिए होती है। अटेंशन की जगह कनेक्शन की तलाश करें यदि, तो संबंध गहरे बनते है। प्रगाढ़ संबंधों के बाद यह अटेंशन की भूख लुप्त हो जाती है। फिर कभी यह भूख जागती नहीं। आत्म-संतुलन बनाना सिद्धहस्त हो जाए, तो बहुत सारे प्रश्न मिट जाते है। उन्ही प्रश्नों में यह अटेंशन की भूख भी शामिल है। हम यदि अपने आप की क्षमताओं को समझते है, पहचानते है, तो फिर हमें एक आत्म-संतुलन बनाना आ ही जाएगा। 

चिंतन के लिए अंतिम प्रश्न

    एक इतनी समझ यदि बन जाए, कि क्या मुझे ध्यान चाहिए, या स्वीकृति? जो मुझे देख रहे है, वे मुझे समझ भी रहें है? और अगर दुनिया न भी देखे तो क्या मैं खुद को देख पा रहा हूँ? बस यह तीन प्रश्न में लगभग सारा समाधान है। और यह समाधान ही सत्य है, यह समाधान की स्वीकृति हमें (मुझे) अपना लेनी चाहिए। बाहरी खोज से ज्यादा शोभनीय और उचित खोज भीतरी है। अपनी क्षमताओं को सिद्धहस्त करना..! अटेंशन अपने आप मिल जाएगा, जब हम से ज्यादा हमारी क्षमता की आवाज बुलंद हो जाएगी।

    फ़िलहाल समय हो चूका है, शाखा में पहुँचने का। और शाखा के बाद वॉलीबॉल कूटने का। ऊपर से आज शनिवार है। कल रविवार होने से रात को देर तक खेलते है, तो भी कोई समस्या नहीं होगी। 

    शुभरात्रि 
    ०८/११/२०२५

|| अस्तु ||


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