ईमानदारी और पहाड़ों की सीख - थकान से सुकून तक की यात्रा || दिलायरी : 06/11/2025

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ईमानदारी और पहाड़ों की सीख | दिलायरी : थकान से सुकून तक की यात्रा


"सर्दियों की आहट में ईमानदारी और पहाड़ों की सीख – दिलायरी ब्लॉग चित्र"

ईमानदारी का सौदा — जब घाटा भी लाभ बन जाता है

    प्रियम्वदा ! 

    ईमान बड़ी सही चीज़ है। कोई ईमान प्रदर्शित करता है, तो प्रत्युत्तर में भी उसे ईमानदारी ही मिलती है। बहुत कम प्रसंग ऐसे होते है, जहां ईमानदारी का बदला बेईमानी से मिला हो। मुझमें इतनी तो नैतिकता पाई है मैंने, कि अगर सामने से कोई ईमानदारी दिखाता है, तो उसका घाटा मैं न होने दू। आज किसी से बही खाते मिला रहा था, बड़ा साफ व्यापारी है। विधर्मी है, लेकिन खातों में ईमानदारी बरतता है। इस बार मेरे खातों में कईं भूल थी। अगला चाहता तो लाखों का माल निगल सकता था। लेकिन ईमानदारी उसने संभाल ली, और बदले में उसके खातों में छिपी भूलें मैंने भी उन्हें बताई। मैं भी चाहता तो उनकी भूलों का फायदा उठा सकता था। लेकिन ईमानदारी का बदला ईमानदारी से देने में ही भलाई है। सबकी भलाई।


सुबह की जंग और बदलता रुटीन

    वैसे यह दिलायरी शुरू से नए सिरे से शुरू करनी पड़ी है। कारण इतना ही है, कि पहले जब लिखने बैठा था, तो समय काफी था, लेकिन असमय कुछ भी सूझ नहीं रहा था। और बाद में यह व्यापारी भी बही खाते लेकर आ गया था। खेर, सवेरे जल्दी उठ जाना भी, मेरे कठिनतम कामों की सूची में सम्मिलित है। कैसे जाग जातें है लोग? मैं हुकुम को देखकर भी सोच में डूब जाता हूँ, कि कैसे? पांच बजे उठकर स्नानादि से निवृत हो जाना.. लेकिन क्यों? लेकिन वे तो ग्यारह बजे सो भी जातें है। ग्यारह बजे नींद भी तो आनी चाहिए। मुझे तो नही आ पाती, सिवा बीमारी के। यह दिनचर्या उस समय की जरूरत थी, जब इलेक्ट्रिसिटी नहीं होती थी। उस समय अंधेरा होते ही सारे शोर थम जाते थे।


दिलबाग से दूरी और दिन का व्यर्थ बहाव

    मैं आज भी जबरजस्ती सात बजे उठा, मजबूरी थी। क्योंकि कुँवरुभा के स्कूल खुल गए है, और मुझे उन्हें छोड़ने जाना था। फिर से एक बार मेरा बॉडी-क्लॉक बदलेगा। अभी अभी याद आया, कितने दिनों से मैंने अपने दिलबाग की खबर तक नहीं ली है। जब से उस महाराष्ट्र ट्रिप से लौटा हूँ, दिलबाग का तो नशा ही उतर गया है मेरा। कितने कुछ प्लान्स थे मेरे दिलबाग को लेकर। लेकिन बाद में घर के कुछ यह अपग्रेड्स, और भागदौड में रह गया। सवेरे से दोपहर तक तो मेरी थोथों में ही निकल गयी। बाकी समय निकला बस इधर उधर के बेफालतू कामों में। दोपहर बाद काफी खाली समय मिला था। लगभग तीन से चार घण्टे जितना समय, लेकिन व्यर्थ गया। न कुछ लेखनी से उतर पाया, न ही कुछ रसग्राह्य भीतर उतरा।


सर्दियों की आहट और प्रकृति का रूपांतरण

    आज घर लौटते हुए अहसास हुआ, ठंड अपनी पकड़ जमाने लगी है। बाइक चलाते हुए, सामने की हवा ठंडी महसूस होती रही थी। प्रकृति अपना आँचल बदल रही है। अभी तक हरियाली को धारण की हुई पृथ्वी की उपलि सतह, अब धीरे धीरे पीलापन पकड़ने लगी है। सर्दियों के स्थिर होते ही, वे तमाम तृण, जो यूँही सड़कों के किनारों पर, और खाली मैदानों को कब्जाए बैठे थे, उन्हें अपना साम्राज्य खाली करने होगा। वे भी धोलावीरा और हरप्पन संस्कृति की माफिक पृथ्वी के भीतर कहीं समा जाएंगे। तब तक, जब अगली वर्षा नहीं होती। गर्मियों को सहने से बेहतर है, वे एक कुंभकर्ण सी निंद्रा को आधीन हो जाए। सही समय देखकर वे तमाम तृण फिर लौट आएंगे। और अपनी भूमि पुनः कब्जाएँगे।


तृणों का तुष्टिकरण — एक लेखक की कल्पना में ऋतु का रंग

    देखा तुमने, एक फालतू लेखक कैसी कल्पनाएं कर रहा है। तृणों का तुष्टिकरण कर रहा है। लेकिन और क्या करूँ? साढ़े ग्यारह बजने को आए है, लेकिन इस दिलायरी को संवारने लायक और कोई बात दिमाग मे आ नहीं रही है। मैंने कईं बार कर्ण होने का भाव अनुभव किया है। जरूरत आने पर ही अविद्या का यह अवगुण, मुझे बांधकर ही रखता है।


ब्रह्मगिरि की चढ़ाई और थकान का दर्शन

    प्रियम्वदा ! कितनी अजीब बात है, कि पहाड़ थकान उतारते है। वो बिच में सोसियल मिडिया पर खूब उड़ा था न, "माउंटेन्स कॉलिंग.." पहाड़ चढ़ने जितना मुश्किल काम, और अनहद थकान को पहाड़ कैसे मिटा सकते हैं? लेकिन सच कहूं तो पहाड़ थकान मिटाते है। अभी कुछ दिनों पहले ही जब मैं त्र्यंबकेश्वर में स्थित ब्रह्मगिरि पर्वत चढ़ रहा था, तो शुरुआती कुछ कदम चढ़ते हुए ही मेरी हिम्मत डगमगा गयी थी। एक तो खड़ी चढ़ाई, ऊपर से यह विचित्र खड़ी दिवार जैसा पहाड़... देखकर ही लगता था, कि यह तो माउंटेन क्लाइम्बर्स के लिए बना है। लेकिन कोशिश करते-करते  आखिरकार मैं चढ़ ही गया था। 

    न जाने कितने ही विराम लिए होंगे मैंने इस छोटी सी चढ़ाई के लिए। खुद की क्षमताओं को कितना ही खिंचा था मैंने। तब जाकर मैं उस जगह तो जरूर ही पहुँच गया, जहाँ इस पर्वत का एक विराम था। चोटी तो बहुत दूर थी। चोटी पर भी चले जाते, लेकिन इतना समय नहीं था। पूरा ही थका हुआ जब मैं इस दीवार जैसे पहाड़ के मूल के पास बैठा था, तो यहाँ से दीखते दृश्यों ने सारी ही थकान कुछ ही पलों में भुला दी थी। दरअसल थकान उतर नहीं जाती है। बस हमारा मन उस थकान को भूल जाता है। यहाँ से दीखते नए दृश्य, नए दृष्टिकोण को देखने में मन इतना ज्यादा उत्साहित हो जाता है, कि वह भूल जाता है, उस परिश्रम को, जो यहाँ तक पहुँचने में हुआ था।

चढ़ाई और उतराई — जीवन का रूपक

    मन इस नए दृश्य से इतना ज्यादा प्रभावित हो जाता है, कि वह अधिक कल्पनाएं करने लगता है, कि यदि यहाँ से इतना सुंदर दृश्य है, तो और ऊपर से कितना सुंदर दृश्य दीखता होगा इस प्रकृति का। मन के साथ साथ जब शरीर भी इतनी ऊंचाई पर हो, ठण्ड मिश्रित हवाओं के साथ आंखोमे पड़ते दूर दूर के नन्हे प्रतिबिंबो से मन में नया उद्यम करने का सहस भी आ जाता है। तीन मंजिला ईमारत भी कैसे यहाँ से बिलकुल अंगूठे भर की दिखती है। नई कल्पनाए मन में निवास करती है। 

    थकान को भूल जाने के कारण, शरीर ऊर्जा से भरपूर जरूर से लगता है। असल थकान महसूस होती है तब, जब हम इन दृश्यों को आँखों में भरकर वापिस लौटने के परिश्रम में मशगूल होते है। कोई अगर कहता है, उतरना तो आसान है, तो हाँ ! चढ़ाई के मुकाबले तो आसान है, लेकिन बहुत ज्यादा जोखिम भरा है। उतरते समय, अगर पैर फिसला तो कहाँ तक निचे उतरते जाओगे, यह सिर्फ और सिर्फ समय, परिस्थिति, और स्थान पर निर्भर करता है। यही चढ़ाई उतराई को जीवनरेखा के दृष्टिकोण से देखते है, तो भी सही ठहरती है। जीवन में ऊंचाई प्राप्त करना कितना मुश्किल है। लेकिन अगर लोगो की नज़रों से  उतर जाना है, तो जरा भी देर नहीं लगती। 

    शुभरात्रि। 
    ०६/११/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

थोड़ा ठहरिए, इस दिलायरी के शब्दों में अपनी थकान भी उतार कर देखिए — शायद सुकून यहीं मिले।

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