ईमानदारी और पहाड़ों की सीख | दिलायरी : थकान से सुकून तक की यात्रा
ईमानदारी का सौदा — जब घाटा भी लाभ बन जाता है
प्रियम्वदा !
ईमान बड़ी सही चीज़ है। कोई ईमान प्रदर्शित करता है, तो प्रत्युत्तर में भी उसे ईमानदारी ही मिलती है। बहुत कम प्रसंग ऐसे होते है, जहां ईमानदारी का बदला बेईमानी से मिला हो। मुझमें इतनी तो नैतिकता पाई है मैंने, कि अगर सामने से कोई ईमानदारी दिखाता है, तो उसका घाटा मैं न होने दू। आज किसी से बही खाते मिला रहा था, बड़ा साफ व्यापारी है। विधर्मी है, लेकिन खातों में ईमानदारी बरतता है। इस बार मेरे खातों में कईं भूल थी। अगला चाहता तो लाखों का माल निगल सकता था। लेकिन ईमानदारी उसने संभाल ली, और बदले में उसके खातों में छिपी भूलें मैंने भी उन्हें बताई। मैं भी चाहता तो उनकी भूलों का फायदा उठा सकता था। लेकिन ईमानदारी का बदला ईमानदारी से देने में ही भलाई है। सबकी भलाई।
सुबह की जंग और बदलता रुटीन
वैसे यह दिलायरी शुरू से नए सिरे से शुरू करनी पड़ी है। कारण इतना ही है, कि पहले जब लिखने बैठा था, तो समय काफी था, लेकिन असमय कुछ भी सूझ नहीं रहा था। और बाद में यह व्यापारी भी बही खाते लेकर आ गया था। खेर, सवेरे जल्दी उठ जाना भी, मेरे कठिनतम कामों की सूची में सम्मिलित है। कैसे जाग जातें है लोग? मैं हुकुम को देखकर भी सोच में डूब जाता हूँ, कि कैसे? पांच बजे उठकर स्नानादि से निवृत हो जाना.. लेकिन क्यों? लेकिन वे तो ग्यारह बजे सो भी जातें है। ग्यारह बजे नींद भी तो आनी चाहिए। मुझे तो नही आ पाती, सिवा बीमारी के। यह दिनचर्या उस समय की जरूरत थी, जब इलेक्ट्रिसिटी नहीं होती थी। उस समय अंधेरा होते ही सारे शोर थम जाते थे।
दिलबाग से दूरी और दिन का व्यर्थ बहाव
मैं आज भी जबरजस्ती सात बजे उठा, मजबूरी थी। क्योंकि कुँवरुभा के स्कूल खुल गए है, और मुझे उन्हें छोड़ने जाना था। फिर से एक बार मेरा बॉडी-क्लॉक बदलेगा। अभी अभी याद आया, कितने दिनों से मैंने अपने दिलबाग की खबर तक नहीं ली है। जब से उस महाराष्ट्र ट्रिप से लौटा हूँ, दिलबाग का तो नशा ही उतर गया है मेरा। कितने कुछ प्लान्स थे मेरे दिलबाग को लेकर। लेकिन बाद में घर के कुछ यह अपग्रेड्स, और भागदौड में रह गया। सवेरे से दोपहर तक तो मेरी थोथों में ही निकल गयी। बाकी समय निकला बस इधर उधर के बेफालतू कामों में। दोपहर बाद काफी खाली समय मिला था। लगभग तीन से चार घण्टे जितना समय, लेकिन व्यर्थ गया। न कुछ लेखनी से उतर पाया, न ही कुछ रसग्राह्य भीतर उतरा।
सर्दियों की आहट और प्रकृति का रूपांतरण
आज घर लौटते हुए अहसास हुआ, ठंड अपनी पकड़ जमाने लगी है। बाइक चलाते हुए, सामने की हवा ठंडी महसूस होती रही थी। प्रकृति अपना आँचल बदल रही है। अभी तक हरियाली को धारण की हुई पृथ्वी की उपलि सतह, अब धीरे धीरे पीलापन पकड़ने लगी है। सर्दियों के स्थिर होते ही, वे तमाम तृण, जो यूँही सड़कों के किनारों पर, और खाली मैदानों को कब्जाए बैठे थे, उन्हें अपना साम्राज्य खाली करने होगा। वे भी धोलावीरा और हरप्पन संस्कृति की माफिक पृथ्वी के भीतर कहीं समा जाएंगे। तब तक, जब अगली वर्षा नहीं होती। गर्मियों को सहने से बेहतर है, वे एक कुंभकर्ण सी निंद्रा को आधीन हो जाए। सही समय देखकर वे तमाम तृण फिर लौट आएंगे। और अपनी भूमि पुनः कब्जाएँगे।
तृणों का तुष्टिकरण — एक लेखक की कल्पना में ऋतु का रंग
देखा तुमने, एक फालतू लेखक कैसी कल्पनाएं कर रहा है। तृणों का तुष्टिकरण कर रहा है। लेकिन और क्या करूँ? साढ़े ग्यारह बजने को आए है, लेकिन इस दिलायरी को संवारने लायक और कोई बात दिमाग मे आ नहीं रही है। मैंने कईं बार कर्ण होने का भाव अनुभव किया है। जरूरत आने पर ही अविद्या का यह अवगुण, मुझे बांधकर ही रखता है।
ब्रह्मगिरि की चढ़ाई और थकान का दर्शन
चढ़ाई और उतराई — जीवन का रूपक
|| अस्तु ||
प्रिय पाठक !
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