राजा प्रवीरचंद भंजदेव : बस्तर की अस्मिता, संघर्ष और 1966 की दुखद घटना || दिलायरी : 20/11/2025

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अंग्रेजों का विरोध और भारतीय राजाओं का छिपा पक्ष

    प्रियम्वदा !

    इतिहास एक ऐसा आयना है, जहाँ कभी हम अच्छे दिख रहे होते है, तो कभी कुरूप..! और बात अगर भारतीय इतिहास की है, तो फिर तो यहाँ ऐसे ऐसे उदाहरण मौजूद है, जिन्होंने तराजू को हमेशा समतोल रखा है। और बात आयी अंग्रेजो के विरोध की तो, इतिहासकारों ने लोगो को भी नायक बना दिया, जिनसे तो अंग्रेज वास्तव में भारतीयों को बचा रहे थे। कुछ लुटेरे, और पिंडारियो का काम था, लोगो को लूटना, और प्रताड़ित करना। अंग्रेज उनसे जंग करके गाँवों को उजड़ने से बचा रहे थे। लेकिन वे लुटेरे अंग्रेजो से लड़े, इस लिए राष्ट्र नायक और क्रन्तिकारी बन गए। राजाओं ने अंग्रेजो से संधियां की हुई थी, इस लिए वे उतने महत्वपूर्ण नहीं थे। 


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स्वतंत्र भारत में राजाओं और सामंतों की स्थिति

    इतिहास ने भारतीय राजाओं को बहुत नुकसान पहुँचाया है। खासकर भारत का स्वतंत्रता आंदोलन। भारत संघ में विलय से पूर्व कौनसे राजा ने कौनसे जन कल्याण के काम किये, किसी को कुछ नहीं पता। क्योंकि हर किसी का ध्यान सिर्फ और सिर्फ नेताओं, और अंग्रेजो पर केंद्रित था। 


    आज सवेरे ऑफिस आते हुए, यूट्यूब पर कुछ सुन रहा था। और बड़ा रसप्रद लगा। इस विषय पर और महितियाँ इकट्ठी की। भारत संघ में जुड़ने के बाद राजाओं को कोई भी लाभ न हुआ था, बल्कि नुकसान ज्यादा हुआ। पूर्वजों की संपत्ति में इजाफा होने के बजाए उल्टा सरकारी हो गयी। राजाओं के साथ साथ एक आम सामंत या ज़मींदार भी घाटे में रहा। तमाम ज़मीने "जोते उसकी जमीन' के कायदे में चली गयी। लोकतंत्र आने के बाद भी बहुत सारे राजा लोकप्रिय तो रहे, लेकिन सत्ताहीन लोकप्रियता भी एक तरह का घाटा ही है।


    एक ऐसे भी राजा थे, जो भारतसंघ के निर्माण के बाद भी राजा बना रहे। वे भारतसंघ में विलय के बाद भी प्रजा कल्याण के कामों में लगे रहे। प्रजाने उनके कामों को सराहा भी। लेकिन इसी देश के प्रशासन ने बदले में उन्हें गोलियां दी.. लोहे की गोलियां..!


25 मार्च 1966 – बस्तर राजमहल में हुआ रक्तपात

    25 मार्च 1966 का दिन था। जगदलपुर के राजमहल को पुलिस ने घेर लिया था। राजमहल में कुछ आदिवासी महिलाऐं थी और कुछ आदमी। वे महिलाऐं बार बार बिनती करती थी एक आदमी से, जंगलों में भाग चलने के लिए, जीवित रहने के लिए। बाहर से बार बार सरेंडर कर देने की सूचनाएं दी जा रही थी। उस आदमी ने सरेंडर की बात मान ली थी, कुछ आदिवासी लोग अपने तीर-धनुष छोड़कर आत्म समर्पण करने के लिए आगे बढे। लेकिन तभी फायरिंग शुरू हो गयी। निहत्थे आदिवासियों पर गोलियां चलने लगी। दरबार हॉल में पुलिसबल पहुँच चूका था, वह मौजूद तमाम लोगो पर गोलियों की बौछार हो गयी। उस आदमी के कंधे पर एक गोली लगी, वह पलंग पर गिर पड़ा, और फिर उसके शरीर में बिस और छेद कर दिए गए। 


    दरबार हॉल खून से सना था। जगदलपुर का वह पैलेस श्रीहीन हो चूका था। मृतक लोगो में कुछ आदिवासी स्त्री पुरुष, और बस्तर राज्य के भूतपूर्व राजवी प्रवीर चंद भंजदेव स्वयं थे। आज भी इस दुष्कृत्य को राजनैतिक हत्या, साजिश और अत्यधिक बल प्रयोग माना जाता है। इसी प्रसंग के बाद से बस्तर नक्सलवाद का केंद्र बन गया। इस घटना ने वहां के आम लोगो को सरकार विरोधी बना दिया था। आज भी वहां के लोग अपने उस राजा की तस्वीर को अपने देवो के साथ पूजते है।


काकतीय से भंज—बस्तर राजवंश का इतिहास


1190 का भारत – उत्तर से दक्षिण तक की राजनीतिक हलचल

    ईस्वीसन 1190 - भारतभूमि पर काफी बड़ी हलचलों वाला वर्ष रहा था। उत्तर में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी से एक निर्णायक युद्ध की तयारी में व्यस्त थे। पश्चिम में पाटन के सोलंकी-चौलुक्य अपनी डगमगति सत्ता को स्थिर करने में लगे थे। मालवा पर आजुबाजु के राजपूत राज्यों का दबाव था। पूर्व में बंगाल बिहार पर सेन वंश मजबूती से स्थिर था, लेकिन भविष्य के तुर्कों के आक्रमण को लेकर तैयार भी। कलिंग-ओडिशा में गंग वंश धार्मिक उन्नति के चरम पर था। दक्षिण में पाण्ड्य अपने पुनुर्त्थान में लगे हुए थे, और चोल साम्राज्य को कमजोर किये जा रहे थे। किन्तु दक्षिण में ही कल्याणी का चौलुक्य साम्राज्य तीन टुकड़ों में टूटने लगा था। देवगिरि के यादव, द्वारसमुद्र के होयसल, और वारंगल में काकतीय धीरे धीरे अपना स्वतंत्र शाशन जमा चुके थे। 


काकतीय वंश का पतन और अन्नमदेव की बस्तर यात्रा

    ईस्वीसन 1323 में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों से काकतीय साम्राज्य टूटने लगा। परम्परा कहती है, कि अन्नमदेव नामक एक काकतीय राजकुमार साम्राज्य के पतन के पश्चात दक्षिण पूर्व की और बढे। ऐसा माना जाता है, कि उन्हें देवी दंतेश्वरी का आशीर्वाद था। उन्होंने बस्तर तक पहुँचते हुए स्थानीय सत्ताओं को अपने अधीन किया। बस्तर में आदिवासी प्रजा ने उन्हें अपना राजा चुना, और बस्तर में उन्होंने राजधानी स्थापित की।


रानी प्रफुल्लादेवी और अंग्रेजों का विरोध

    मूलतः दक्षिण से आए इस वंश ने बस्तर राज्य पर ईस्वीसन 1324 से लेकर 1921 तक राज्य किया। 1921 में रुद्रप्रताप देव की पुत्री प्रफुल्ला देवी को अंग्रेजो ने बस्तर की राजगद्दी पर बिठाया, क्योंकि उन्हें ऐसा राजयनायक चाहिए था, जो अंग्रेजो के वश में रहे। अंग्रेजो को बस्तर के जंगलों के दोहन में ज्यादा रस था। रानी प्रफुल्ला देवी का विवाह मयूरभंज के राजकुमार प्रफुल भंजदेव से हुआ था। और यहाँ से बस्तर का राजवंश काकतीय से बदल कर भंज हुआ। 25 जून 1929 को उन्हें वहां प्रवीर चंद भंजदेव का जन्म हुआ। 


    अंग्रेजो ने कठपुतली चाही थी, लेकिन रानी ने अपनी प्रजा के उठते स्वरों को प्राधान्य देते हुए बस्तर के जंगलों का  दोहन का विरोध किया। ऐसा कहा जाता है, कि रानी प्रफुल्लादेवी बीमार हुई, उन्हें सर्जरी के लिए लन्दन ले जाया गया, और वहां ऑपेरशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी। अंग्रेजों ने तो वहीँ उनकी अंतिम विधि कर दी थी। पर अन्य राजाओं के दबाव के चलते प्रफुल्लदेवी के अवशेषों को भारत वापिस लाया गया था। 


राजा प्रवीरचंद का उदय और आदिवासियों में बढ़ती लोकप्रियता

    रानी प्रफुल्लादेवी के बाद बस्तर के राजसिंहासन पर प्रवीर चंद भंजदेव ईस्वीसन 1936 में आरूढ़ हुए। कुछ ही समय में भारत देश के विलीनीकरण में बस्तर राज्य हैदराबाद निज़ाम द्वारा मना करने के बावजूद भारत संघ में विलीन हो गया। राजा प्रवीर चंद राजा में से प्रजा हो गए। स्वतंत्र भारत में बस्तर और कांकेर रियासत तो मध्यप्रदेश राज्य में बस्तर जिला नाम से मिला दिया गया। 


प्रिवी पर्स जब्ती का राजनीतिक षड्यंत्र

    प्रवीर चंद भंजदेव को मिलते प्रिवी पर्स के दो लाख रूपये वे अपनी मनमर्जी से खर्च कर देते। जनता कोई मदद मांगने आती तो वे तुरंत मदद करते। इससे वे बहुत लोकप्रिय हो रहे थे। 1953 में मध्यप्रदेश सरकार ने हलफनामा पेश करके उनकी तमाम संपत्ति जब्त कर ली। कारण यह कहा गया था, कि प्रवीर चंद की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। यह सब करने का कारण एक मात्र प्रवीर चंद को नियंत्रण में रखने के लिए किया गया। क्योंकि प्रवीरचंद की लोकप्रियता आदिवासी प्रजा में अनहद बढ़ती जा रही थी। 


    ठीक इसी समय पर जंगल में गैर आदिवासी लोगो की संख्या बढ़ती जा रही थी। रेल लाइन बिछाए जाने के कारण कितने ही आदिवासी विस्थापित हो रहे थे। बस्तर की खदानों से तथा जंगलों से दोहन की योजना पर पुरजोर काम हो रहा था। 1955 में अकाल पड़ा, और आदिवासी लोगो में बात फ़ैल गयी, कि हमारे राजा की संपत्ति सरकार ने जब्त की, इससे देवता रूठ गए है। लोगो का सरकार से और विश्वास उठता गया। 


1957–1961 के आदिवासी आंदोलन

    आज़ादी के बाद भी आदिवासियों की समस्या जमीन और जंगल ही बनी हुई थी। पहले अंग्रेज सरकार थी, अब देशी। 1957 में आदिवासियों के हक़ के लिए राजा प्रवीरचंद विधायक बने। धीरे धीरे राजा प्रवीरचंद का संगठन मजबूत होता जा रहा था, प्रजा उन पक्ष में थी। और सरकार के सामानांतर उनकी एक अलग सत्ता चलने लगी थी। आदिवासियों की जमीनों के लिए उनका आंदोलन तेज़ होता गया। उनके इन आंदोलन की कार्यवाही स्वरुप सरकार ने उनका भत्ता (प्रिवी पर्स) रद्द किया, तथा राजा की उपाधि भी छीन ली। फरवरी 1961 में गिरफ्तार भी कर लिया गया। 


    उनके परिवार में फुट डालने के लिए राजा प्रवीरचंद के भाई विजयचन्द को अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार ने राजा घोषित कर दिया। लेकिन प्रवीर चंद की लोकप्रियता के कारण जनता ने कभी विजयचन्द्र को राजा माना नहीं। उल्टा प्रवीरचंद की रिहाई के लिए प्रजा आंदोलन करने लगी। 1961 में विशाल जन्मदनि ने रैली का आयोजन किया। प्रशाशन के साथ घर्षण हुआ, फायरिंग की घटना हुई और 13 लोगों की मृत्यु। 


रिहाई, विवाह और जनता के चंदे से हुआ स्वागत

    इस घटना के बाद राजा की रिहाई के लिए आंदोलन और तेज हो गया। धारा 144 लागू करनी पड़ी। अप्रैल 1961 में सरकार को राजा को रिहा करना पड़ा। 1961 में ही राजा प्रवीर का विवाह राजस्थान की पाटन रियासत में हुआ। प्रवीर की तमाम संपत्ति जब्त थी। प्रवीरचंद के पास पैसे आते नहीं थे, तो उनकी रानी को बस्तर लाने के लिए जनता ने चंदा इकठ्ठा करके अपनी रानी का स्वागत किया। प्रजा में असंतोष था, जंगल के दोहन को लेकर, और उनके प्रिय राजा की संपत्ति पर सरकारी कब्जे को लेकर, आंदोलन तीव्र होते गए, और 1963 में सरकार ने संपत्ति लौटा दी। 


1965 का अकाल, प्रशासन का दबाव और बढ़ता असंतोष

    1965 में बस्तर में अकाल पड़ा, लेकिन करवसूली चालु रही। असंतोष और बढ़ा, 1965 में फिर जनता एक बार आंदोलन करने उतरी। रैलियां हुई, सरकार ने फिर धारा 144 लागू कर नियंत्रण लाना चाहा। आखिरकार 1966 का 25 मार्च का वह दिन आया। आदिवासी अपनी समस्या लेकर राजा के पास पहुंचे थे। बार बार सरकार से होते असंतोष का निवारण राजा ही करते आए थे। उसी दिन पुलिसबल से कहीं पर झड़प हुई थी, और पुलिसबल ने राजमहल पर इकठ्ठा हुई इस भीड़ के समेत पुरे राजमहल को घेर लिया। 


    आदिवासियों ने भी अपना धनुष बाण उठा लिया। घर्षण और बढे, उससे पूर्व राजा ने प्रजा को समझा लिया। आत्मसमर्पण करना चाहा। महिला और बच्चो को आत्मसमर्पण करने के लिए आगे किया। लेकिन किसी कारणवश गोलियां चलने लगी। उस दिन राजमहल को रक्त से रंग दिया गया। राजा के शरीर में बीस घाव हुए थे गोलियों से। अपने ही राजमहल में उनकी हत्या हो गयी। लोकप्रिय राजा, जनता को तमाम मदद करता राजा, उस दिन छलनी हुआ अपने राजमहल में सदा के लिए सो गया। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार 12 लोग मारे गए थे, और 20 घायल।


जनता के हृदय में जीवित एक राजा

    पूरा बस्तर शोक में डूब गया था। मानो पिता की मौत हुई हो। हजारों लोगो ने अपने चहिते राजा की अंतिम यात्रा में भाग लिया था। बस्तर के गाँवों के गीतों में, कहानियों में, स्मृतियों में आज भी उनका नाम गूंजता है। सरकार सरकार शायद उनकी लोकप्रियता से डरती थी। इसी लिए आधिकारिक दस्तावेजों में उनका नाम और काम दबाया गया है। आज भी उन्हें आदिवासी अस्मिता के सबसे बड़े प्रतिक के रूप में याद किया जाता है। जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर ही वे सदा कटिबद्ध रहे। 


    सरकार को यह भय भी था, कि कहीं राजा प्रवीरचंद पुनः राजशाही स्थापित न कर ले। वर्षों की जमीन छिनाइ, पुलिसबल की क्रूरता, और आदिवासी प्रजा के अपमान के कारन राजा प्रवीरचंद सदैव सरकार के खिलाफ विरोध करते रहे। बस्तर उनका राज्य था। बस्तर की प्रजा उनकी अपनी प्रजा थी। जब जमीने छीनी जा रही हो, जब जंगल सरकारी प्रोजेक्ट्स के बिच पीस रहे हो, और जनता की स्वयं की पहचान ही संकट में हो, तब राजा प्रवीरचंद भंजदेव की कहानी याद दिलाती है कि,

आवाज़ उठाने वाले अक्सर मारे जाते हैं…
पर उनकी आवाज़ कभी मरती नहीं।



सन्दर्भ : जनचौक
            फॉरवर्डप्रेस
            इंडियन राजपूत्स
            काकतीय साम्राज्य


FAQ – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

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1. राजा प्रवीरचंद भंजदेव की मृत्यु कब हुई?  

25 मार्च 1966 को बस्तर राजमहल में फायरिंग में उनकी मृत्यु हुई।  


2. वे आदिवासियों में इतने लोकप्रिय क्यों थे?  

क्योंकि वे जल–जंगल–जमीन के अधिकारों के लिए हमेशा खड़े रहे।  


3. क्या 1966 की घटना के बाद बस्तर में नक्सलवाद बढ़ा?  

इतिहासकार इसे बस्तर क्षेत्र में तनाव बढ़ने का एक बड़ा कारण मानते हैं।  


शुभरात्रि।

२०/११/२०२५

|| अस्तु ||


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