भीमाशंकर से घृष्णेश्वर : समृद्धि महामार्ग पर नींद, नयन और नयनाभिराम दर्शन की यात्रा | दिलायरी : 23/10/2025

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प्रस्तावना : क्षमताओं की थकान और विश्राम का सबक

    प्रियम्वदा !

    कईं बार हम अपनी क्षमताओं को बेफालतू में ही खींचने में लग जाते है। सही रास्ता तो यही है, कि अपनी क्षमताओं को अनधिकृत खींचने के बजाए थोड़ी देर रुक जाना चाहिए। खिंचाव और तनाव से मुक्त होकर, नयी ऊर्जा के साथ फिर क्षमताओं का उपयोग करना चाहिए। लेकिन यह कहना, और समझना जितना आसान है, उतना वास्तविकता में उतारना नहीं है। 


“त्र्यंबकेश्वर और भीमाशंकर मंदिरों के बीच पहाड़ी रास्ते पर चलती एक कार — जिसमें बैठा राही अपनी नोटबुक और कलम के साथ आत्मयात्रा पर निकला है, सादा सफेद पृष्ठभूमि पर जीवन की यात्रा का प्रतीक दृश्य।”  🕉️ TITLE TEXT:

मंचर से नांदुर : मच्छरों की नींद और बैटरी का सबक

    मंचर बाई-पास के आगे एक हाईवे होटल के पार्किंग लोट में कार खड़ी थी। आगे के दो और पीछे का एक शीसा थोड़ा खुला हुआ था। एक अच्छी झपकी शायद हमनें ले ली थी। मच्छरों ने ही जगाया था, वरना हमें तो उठने की कोई इच्छा थी नहीं वैसे। संस्कार पालन करके जो सोये थे। खेर, मैं निंद्रा में नहीं था, तन्द्रा में जरूर था। पुष्पा ने ही कहा, अब चल दिया जाए यहाँ से। मच्छर बहुत काट रहे है। मैंने पानी से मुँह धोया, कार के विंडशील्ड पर वाईपर फेर दिया। कार स्टार्ट की, और चल दिए। 


    रात के डेढ़ बजे हमने फिर से खाली रोड पर कार दौड़ा दी। आसपास का सारा ही वातावरण अभी सोया हुआ था। दिनभर चले हुए ट्रक्स भी जैसे थक गए हो, और रोड के किनारे सुस्ताने पड़े हो। इस तरह कतारबद्ध खड़े हुए थे। यह नाशिक पुणे हाईवे था। सिक्स लेन हाईवे है, इस कारण ट्राफीक की कोई बाधा नहीं होती। और वैसे भी रात के दो बजे ट्रक्स के अलावा कौन चलता है? कोई हम जैसे यात्री ही.. शायद..! 


    संगमनेर क्रॉस कर चुके थे हम। रात के तीन बजने को आए थे। नांदुर-शिंगोटे के बाद हमें समृद्धि महामार्ग लेना था। लेकिन शायद अभी हमारा समय नहीं था। पुष्पा और नींद बहादुर फिर से झपकियां लेने लगे। इन दोनों को सोता देख मुझे भी नींद आने लगी। गाडी में सन्नाटा सा छाया हुआ था। और सन्नाटें या तो निंद्रा ले आते है, या फिर भय। भय का तो माहौल नहीं था, नींद जरूर आने लगी मुझे। नांदुर हमने शायद पार कर लिया। आगे एक चाय वाला दिखा, सोचा एक कड़क चाय पिऊंगा, तो नींद उड़ जाएगी। 


    मैंने चाय वाले से आगे अपनी कार रोकी। लेकिन कार रोकते ही मन बदल गया। लगा जैसे एक झपकी और ले लेनी चाहिए। पुष्पा भी सोया हुआ था। तीन या साढ़े तीन बजे होंगे। चाय वाले के टेम्पो के आगे मैंने अपनी कार रोककर थोड़े थोड़े शीशे खुले रखकर सो गया। सीधे पांच बजे पुष्पा ने जगाया। तीन - साढ़े तीन बजे सोया था। एक तगड़ी नींद ले ली थी। कार में सोना भी ज्यादा मुश्किल नहीं है। बस नींद आनी चाहिए। और वैसे भी नींद जब आती है, तो उसे कभी भी किंगसाइज बैड या रेश्मीन मुलायम गद्दा नहीं चाहिए होता है। निन्द्राग्रस्त हुआ व्यक्ति पत्थर की शिला पर भी उतनी ही मस्ती से सो सकता है..!


    घड़ी में देखा, पांच बज रहे थे। यहां से डेढ़सौ किलोमीटर का सफर तय करना था। वो भी समृद्धि महामार्ग से। वह भी सीधी रेख में एक्सप्रेसवे है। चाय वाले से एक-एक चाय पि। मुँह धोने के लिए मुँह पर पानी मारते ही आँखे जल उठी। थकान और सतत जागते-चौकन्ने रहने से आँखे जलती है। आँखों में पानी जाते ही इतनी तेज जलन हुई थी, कि कुछ देर फिर आँखे बंद करके खड़ा ही रह जाना पड़ा था। 


    अब जागते रहने के लिए एक मावा खाया। ड्राइविंग सीट पर बैठकर कार को सेल्ल लगाया, लेकिन कार चालू हुई ही नहीं। दूसरी बार सेल लगाया, लेकिन कार स्टार्ट हुई ही नहीं। पुष्पा तुरंत बोला, "भाईसाहब ! अगर नींद आती है, और कार को कहीं पर रोकते हो, तो कार पूरी तरह बंद करनी चाहिए। आप ने कार साइड में रोक ली। कार बंद की, लेकिन हेडलाइट्स बंद करनी भूल गए थे। यह तो मैंने अभी पांच बजे मेरी आँख खुली तब हेडलाइट्स बंद की है।" सीधी बात है। बैटरी डाउन हो गयी कार की। अब बैटरी डाउन है तो सेल लगेगा ही नहीं, कार स्टार्ट होगी ही नहीं। 


    कार चालू करने का एक ही तरीका था, धक्का लगा कर कार को चालू की जाए। और फिर कार को बंद नहीं होने देनी है। मैंने जहाँ कार रोकी थी, वहां आगे काफी खाली जगह थी। कार को दूसरे गियर में लगाया, पीछे से पुष्पा और - केवल धक्का मारने के लिए जागृत अवस्था को प्राप्त हुए - नींद बहादुर ने धक्का लगाया। कार ने थोड़ी गति पकड़ी, और मैंने क्लच छोड़ दिया। कार स्टार्ट हो गयी। पुष्पा और नींद बहादुर वहीँ ख़ुशी से जयकारे लगाने लगे।


    फिर से अब एक बार मैं ड्राइविंग मोड़ में आ चूका था। साइड विंडोज थोड़े खोल दिए। अजरख को मफलर की तरह कानों पर लपेट लिया। इंफोटेनमेंट सिस्टम में मेरी प्रिय प्लेलिस्ट बजा दी। मेरी प्लेलिस्ट और लोगों को कम पसंद आती है। क्योकि मेरी प्लेलिस्ट में गुजराती गाने है। एक उत्तराखंडी, एक हिमाचली, २ मराठी, ३-४ पंजाबी, १ असामी और एक बुंदेलखंडी गाना भी है। बाकी बॉलीवुड है। अब मुझे नींद आने का सवाल नहीं था। काफी नींद ले चूका था, एक बार मंचर के पास, उसके बाद यहाँ नांदुर के पास। 


समृद्धि महामार्ग पर S-Presso की सरपट उड़ान

    कुछ ही देर में समृद्धि एक्सप्रेसवे पर चढ़ गयी थी मेरी S PRESSO.. नागपुर को मुंबई से जोड़ता यह एक्सप्रेसवे ७०१ किलोमीटर लंबा है। पहले मुंबई से नागपुर पहुँचने में १८ घंटे लगते थे। अब मात्र ८ घंटे में यह सफर तय हो सकता है। ८ लेन का यह एक्सप्रेसवे 120 किलोमीटर प्रति घंटे से चलने की अनुमति देता है। कहीं भी कोई बम्प्स नहीं, कहीं भी कोई मोड़ नहीं। बस स्टेरिंग पर कण्ट्रोल रखो, और अक्सेलरेटर दबाकर बैठे रहो। जगह जगह पर रेस्ट एंड सर्विस एरिया बने हुए है। पहले शायद इस रोड का नाम समृद्धि महामार्ग था। और अब हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहब ठाकरे महाराष्ट्र समृद्धि मार्ग कहा जाता है। 


    इस रोड पर चलने में मजा यही है, कि यहाँ बस आसपास के खेत खलिहान देखो, रोड पर नाम मात्र का ट्रैफिक होता है, कोई कोई कार कभी कभी दिख जाती है। वैसे भी सुबह सुबह का समय था। भगवन सूर्य नारायण अभी क्षितिज से कुछ ही ऊपर उठे थे। जैसे जैसे कार बढ़ती रही, वैसे वैसे आदित्य क्षितिज से और ऊपर की ओर बढ़ते रहे। वैजापुर आने वाला था, उससे पहले एक रेस्ट एंड सर्विस एरिया में कार रोक ली मैंने। कार रोक तो ली, लेकिन मन में अभी भी वहम था, कि कहीं बैटरी इतनी देर में चार्ज नहीं हुई होगी, तो फिर से धक्का मारना पड़ेगा। मैं सोच रहा था, कि कार को चालु ही छोड़ दी जाए। लेकिन ऐसे मामले में पुष्पा का विश्वास बड़ा सहारा देता है। उसीने कहा, "बंद कर दो, कुछ नहीं होगा।"


    रेस्ट एरिया में टॉयलेट वगैरह की अच्छी सुविधा है। चाय तो मिली, नाश्ता हमने पूछा नहीं। कुछ देर कार को ठंडी होने वहीँ खड़ी रहने दी। जब से इस समृद्धि महामार्ग पर चढ़े थे, कार लगातार ११५ की गति पर चले ही जा रही थी। उसे भी रेस्ट देना जरुरी था। एक बात और मेरी नज़रों में चढ़ी। यह मुंबई-नागपुर, और वह दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे आरसीसी सीमेंट वाले है। इन एक्सप्रेसवे पर कार के टायर भयंकर छील जाते है। मैंने उस रोड पर जितनी कार चलती देखि, सबके टायर एकदम काले थे। आमतौर पर चलती कार के टायर काले कम, थोड़े ब्राउन दीखते है, क्योंकि धुल मिटटी चढ़ती है। लेकिन इस एक्सप्रेसवे पर टायर का रब्बर छिलता रहता है। 


    ट्रक वालो से भी खूब सुना है, जब भी वे भारतमाला (जामनगर-अमृतसर) एक्सप्रेसवे पर चढ़ते है। उनके टायर बहुत ज्यादा छील जाते है। ऐसे टायर फटते भी जल्दी है। लगभग आधे घंटे का स्टॉप लेकर हम लोग फिर से चल पड़े। नौ बजे हम लोग वेरूळ गाँव में दाखिल हो चुके थे। महाशय गूगल मैप्स की मेहरबानी से, हमने इस गाँव में दाखिल होने का रास्ता भी ऐसा चुना, कि कार कार न रहकर  कोई झूला बन गयी थी। कभी बाएं झुकती, कभी दाहिने.. इतने गड्ढे थे, कि कम ग्राउंड क्लीयरेंस वाली कार तो ज़मीं को छूकर चलती थी। 


    गाँव में दाखिल होते ही, हमने पहले होटल रूम ले लेना चाहा। मंदिर से पांचसौ मीटर पर ही कुछ होटल / लॉज के कईं सारे बोर्ड्स दिखे। यहाँ छह -सात होटल्स थे। हमने निर्धारित किया, आज रात रुकेंगे, और कल सुबह घर के लिए निकल पड़ेंगे। यहाँ होटल्स महंगे है। पचीस सौ, तीन हजार का भाव बताया सबने। एक होटल के सामने खाली प्लाट था। मतलब कार पार्किंग हो सकती थी। हमने वहां रूम के लिए पूछा, यहाँ सब लोग कितने आदमी हैं, यह प्रश्न पहले पूछते है। जितने आदमी हो, उस हिसाब से रूम का किराया बताया जाता है। 


    हमारे तीन कहने पर उन्होंने २००० रूपये कहा। मोलभाव करने पर हमें वही AC वाला रूम पंद्रहसौ में मिल गया। मंदिर से मात्र पांचसौ मीटर दूर था, और यहाँ से मंदिर का शिखर भी दिखाई पड़ता था। बुजुर्ग अंकल थे। मेरी बड़ी मूछों को देखते हुए, वे बोले, "आप तो राजा आदमी हो, क्या भावताल करते हो? ऊपर से गुजराती... गुजरातियों के पास पैसों की कमी है क्या?" तो मैंने कहा, "अंकल ! अब तो बस तो घर पहुँच जाए उतने बचे है। इस लिए मोलभाव कर रहे है।"


    वे अंकल काफी खुशमिजाज मालुम हुए। उन्होंने पहले हमसे हमारा आगे का प्लान जाना, और फिर कहा। पहले आप लोग एल्लोरा की गुफाएं देख आओ। घृष्णेश्वर जाना आप रात के आठ बजे। रात आठ बजे वहां कोई भीड़ नहीं होगी, आराम से दर्शन हो जाएंगे। अभी तो सुबह के नौ ही बज रहे थे। हम लोग तैयार-वैयार हो गए। बाहर तेज धूप थी, और बेहद गर्मी भी। ऊपर से मैंने वे सर्दियों के हिसाब से लाये हुए कपडे पहने। कार पर थोड़ा पोंछा मार लिया, और चल पड़े अंकल के आदेशानुसार पहले एल्लोरा की गुफाएं देखने। ठीक सामने पार्किंग है। पचास रूपये पार्किंग के दिए, और चल पड़े मैन गेट की ओर। 


एल्लोरा की गुफाओं में धूप, पसीना और शिल्प का सौंदर्य

    वहां एक-एक ग्लास गन्ने का रस पि लिया। और फिर गेट से दाखिल होते ही पहले टिकट काउंटर बना हुआ है। यहाँ एक बात यह अच्छी है, कि आप खुद से UPI के इस्तेमाल से टिकिट ले सकते है। लाइन में लगने की जरुरत नहीं है। हमने वैसे ही टिकट ले ली, और दाखिल हो गए..! यह काफी क्षेत्र में फैला हुआ है। एल्लोरा के बारे में सविस्तर महितियाँ विकिपेडिया या गूगल बता देगा, किसने बनाई, क्यों बनायीं, इन सब चक्करों में फंसे बिना मैं अपना अनुभव ही यहाँ लिखना चाहूंगा। 


    यह सारी गुफाएं एक क्लिफ (ऊँची खड़ी चट्टान) में बनी हुई है। और लगभग चारसौ सालों में बनी है। यहाँ का मुख्य केंद्र तो कैलाश मंदिर ही है। लगभग तमाम निर्माण निचे से ऊपर की ओर बनते है। घर बनाते है, तो वह भी निचे से ऊपर की और बनता है। लेकिन यह मंदिर ऊपर से निचे की ओर पत्थरो को काट-काट कर बनाया गया है। ई.स. छहसौ से एक हजार के बिच इस भूमि पर ऐसे कारीगर थे, जो पत्थरों को काटकर शिल्पों का निर्माण करने में अव्वल थे। पत्थर भी बेसाल्ट, विश्व के सबसे मजबूत पत्थरों में से एक प्रकार है बेसाल्ट। 


    एल्लोरा के परिसर में दाखिल हुए, समय शायद साढ़े ग्यारह या बारह बज चुके थे। दोपहर का सूर्य पूरा विकसित होकर गर्मी फेंक रहा था। वर्षा से ठीक पहले होने वाली गर्मी। जितना पानी पीओ, उतना पसीने में परिवर्तित होकर शरीर से निकल जाता। हम तीनों लोग हाथ में पानी की बोतल लिए घूम रहे थे। एक तो पैदल चलना, कभी गुफा के उपले माले में जाना, कभी निचे उतरना, कभी संकरी सीढ़ियों से गुजरना.. खुदको संभाले या बोतल को? मैंने तो वहीँ एक डस्टबिन देखकर पानी की बोतल पीकर ख़त्म की, और फेंक दी। 


    गर्मी और तेज धूप के कारण मैं तो पूरा ही पसीने से लथपथ था। लगभग प्रवासियों के यही हाल थे। गुफा के भीतर काफी ठंडक अनुभव होती, लेकिन बाहर आते ही, यह चिलचिलाती धूप सारी ऊर्जा सोख लेती। हमने एक नंबर गुफा से शुरू किया, और यह कैलाश मंदिर तक पहुँचने में ही ऊर्जाहीन हो चुके थे। सवेरे से न तो कुछ नाश्ता किया था, ऊपर से यह पैदल घूमना हुआ वह अलग। कैलाश मंदिर में स्थित शिवलिंग के सामने हाथ ही जोड़ लिए हमने तो। आगे नहीं जा पाए। 


    इन गुफाओं में मुझे एक ही समस्या मिली, यहाँ एक भी गुफा में लाइट नहीं है। बाहर की तेज धूप में से जैसे ही गुफा में प्रवेश करते है, तो एकदम से अँधेरे का सामना होता है। कुछ देर के लिए तो आँखे होते हुए भी अंधे जैसी फीलिंग्स आ जाती है। कुछ गुफाओं में तो शिल्प किसका है, यही नहीं दीखता है। हाँ वैसे पेंतीस रूपये मात्र टिकिट है, इस कारण ज्यादा कुछ कह भी नहीं सकते हैं। 


    दो बज रहे थे। कैलाश मंदिर हमने देख लिया। सारी ही भीड़ एक मात्र इसी स्थान पर थी। यहाँ धक्का-मुक्की भी काफी हो रही थी। हम अपने फोटो-वोटो लेकर निकल पड़े बाहर की ओर। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के रोड पर ही २-३ राजस्थानी दाल-बाटी वाले दिखे थे। हमने वहीँ बैठकी जमा दी। तीन डिश दाल-बाटी मंगवाई। यह भी ठग निकले। एक तो वैसे ही दबाके भूख लगी हुई थी। थकान भी खूब अनुभव हो रही थी। उन लोगो ने दालबाटी में दाल के बजाए सांभर बाटी परोस दी। अन्न का अनादर करने के डर से मैंने चुप-चाप खा लिया। लेकिन पैसे चुकाते समय सुना भी दिया, कि यह ठगी बंद करो। 


    सोचा अभी दोपहर का समय है, मंदिर खाली होगा, दर्शन कर लेते है। अगर अभी दर्शन हो गए, तो दोपहर बाद पार्टी के लिए अच्छा समय मिल जाएगा। हम लोग चल पड़े मंदिर की ओर। मंदिर के प्रवेशद्वार के ठीक सामने प्रसादी और जूताघर बना हुआ है.. एक मराठी स्त्री वह चलाती है। हमने अपने जूते वहीँ उतारे। पांच रूपये प्रति जूते का भुगतान करना होता है। हम तो प्रवेशद्वार के सामने खड़ी भीड़ में शामिल हो गए। फिर पता चला, मंदिर में प्रवेश करने की तो लाइन अलग है। यह लोग तो मौका देखकर घुस जाने वालों की भीड़ थी। हमने लाइन से दाखिल होने की सोची। लाइन के अंत के लिए हम लोग चलते रहे, चलते रहे.. लेकिन लाइन का सिरा ही नहीं मिल रहा था, इतनी लम्बी लाइन देखकर, हम लोग वापिस प्रवेशद्वार की ओर चल पड़े। 


    वहां प्रवेशद्वार के सामने खड़ी एक फेमिली, डायरेक्ट दर्शन के लिए सेटिंग बिठा चुकी थी। हमने उससे बात की, तीनसौ रूपये प्रति व्यक्ति का भाव समझ में आ गया, वैसे भी इतनी लंबी-लंबी लाइनों का स्वाद हम दो दिन से चख ही रहे थे। तो आज तो पैसे देकर दर्शन कर लेने में हमें कोई हर्ज़ नहीं था। लेकिन जो आदमी यह सेटिंग कर रहा था, वह आदमी हमें मिला नहीं कहीं। तो हम लोगो ने आपस में तय किया, अभी रूम पर चलते है। शाम को वापिस आएँगे। वे अंकल लोकल है। उन्होंने कहा है, कि शाम को कोई भीड़ नहीं होगी, मतलब भीड़ नहीं ही होनी चाहिए। 


    हम रूम पर जाते जाते हाइवे की ओर मूड गए। हाइवे पर ही बार एंड रेस्टोरेंट है। एक-एक ठन्डे जौ के पानी का सेवन किए। और रूम पर लौट आए। एक अच्छी झपकी इस लिए भी आ गयी, क्योंकि रातभर अधूरी निंद्रा, ड्राइविंग, और भरी दोपहर में एल्लोरा की गुहाओं में घूमना.. यह सब थकान बहुत भारी थी। लगभग पांच बजे उठा। चाय की भारी याद आयी। महाराष्ट्र में भी चाय अच्छी मिलती है। लेकिन यह लोग इलायची ज्यादा यूज़ करते है। मुझे नहीं पसंद। चाय में अदरक अच्छी लगती है। 


    एक तिराहे पर चाय का पतीला चढ़ा हुआ ही था। वहीँ कार रोक ली। एक एक चाय पी। सिगरेट का दम खिंचा। थोड़ी चेतना लौटी। चाय पीते पीते हमें वही आदमी दिखा, जो मंदिर पर भीड़ को कण्ट्रोल करने में लगा हुआ था। जब हम दोपहर को मंदिर गए थे, और बाहर बहुत ज्यादा भीड़ थी, तब यही आदमी मंदिर के गेट पर खड़ा हुआ, सबको लाइन में आने के लिए और धक्कामुक्की न करने को समझा रहा था। तो मैंने यूँही इससे डायरेक्ट दर्शन (VIP दर्शन) के लिए पूछ लिया। 


    पूरा व्यापारी बन गया वह आदमी। बोला एक आदमी का एक हजार। मुझे टाइमपास करना था। क्योंकि उस अंकल के अनुसार रात आठ बजे के बाद कोई भीड़ नहीं मिलनी थी, और हमें अगर रात को दर्शन न मिले तब भी फ़िक्र नहीं थी, क्योंकि हम रात रुकने ही वाले थे, अगले दिन सुबह दर्शन कर लेते। मैंने सीधे सौ रूपये से स्टार्टिंग किया। एक आदमी का डायरेक्ट दर्शन का सौ रुपया। मतलब तीन आदमी का तीनसौ रूपये। वह धड़ल्ले से मना कर गया। उसने अपना भाव घटाया, एक आदमी का आठ सौ, और पूजनविधि, तथा ज्योतिर्लिंग को एक लोटा जल चढ़ाने की सुविधा वह कर देने को तैयार हुआ। 


    मैंने अपनी और से भाव बढ़ाया, एक आदमी का दोसौ रुपया, कुल छहसौ रूपये। उसने थोड़ा भाव और घटाया, एक आदमी का सातसौ। इतने में पुष्पा बोला, छोडो न, क्यों मजे ले रहे हो आप। और मैंने फिर यह बेफालतू का मोलभाव बंद करते हुए होटल रूम पर चल दिए। नींद बहादुर अभी तक सोया हुआ ही था। उसे जगाया, फ्रेश हुए, और मंदिर की और चल दिए। लगभग साढ़े छह बज रहे थे। मंदिर पर कोई भी नहीं था। जिस जगह पर हमने जूते निकाले थे, उसी महिला के पास हम लोग फिर गए। बहुत शालीन स्वाभाव की वे महिला है। हम जब दोपहर को बिना दर्शन के ही वापिस लौट रहे थे, तो उन्होंने हमारे जूते रखने के कोई पैसे नहीं लिए थे। 


घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग : शर्ट उतारकर श्रद्धा का वस्त्र पहनना

    अभी, इस समय जब कोई भीड़ नहीं थी, तो उन्होंने हम से कहा, "अरे मैं यही सोच रही थी, कि भैया लोग आए नहीं, अभी मंदिर में कोई भीड़ नहीं है। जल्दी जाओ, और आराम से दर्शन कर के आओ।" हम लोगो ने उनके वहां अपने जूते रखे, और चल दिए। कोई भी नहीं था, हम लोग ही थे। भीतर प्रवेश पा लिया, मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो बहुत ज्यादा भीड़ अचानक से हमारे पीछे आ गयी थी। एक बहुत लम्बी लाइन.. पता नहीं कहा से प्रकट हो गए इतने सारे लोग। 


    कुछ ही देर में हम मंदिर में प्रवेश करने वाले थे। तभी सिक्युरिटी गार्ड आया, "सारे पुरुष अपना शर्ट उतार दे। बनियान भी।" मुझे अजीब लगा। मैंने आगे देखा, मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व सारे पुरुष अपना शर्ट उतार रहे थे, बनियान भी। मुझे यह रिवाज अजीब लगा.. पुष्पा बोला, "हाँ ! यहाँ मंदिर में बगैर शर्ट के जाना पड़ता है।" मैं परेशानी में था, और मेरे जैसे और भी थे। मैं तो अपनी ही छत पर बनियान में भी नहीं जाता हूँ। यहाँ इतनी भीड़ में ऐसे कैसे? मुझसे थोड़े आगे एक अंकल थे, वे भी ऐसी ही असमंजस में थे। तभी एक सिक्युरिटी वाला चीख पड़ा, "शर्ट नहीं उतारना है, तो लाइन से बाहर निकल जाओ। दूसरों को आगे आने दो।" अब हम भी मंदिर में बस प्रवेश करने वाले थे। सिक्युरिटी वाले ने उस अंकल को शर्ट के कारण लाइन से बहार निकाल दिया। मैंने तुरंत क्षण भी गंवाएं बिना शर्ट और बनियान उतार दिए। 


    हम अब गर्भगृह में थे। गर्भगृह में एक शायद पुलिसकर्मी भी था। उसकी खाखी पेण्ट, और हेअरकट से मैं अंदाजा लगा रहा हूँ। उसने भी शर्ट नहीं पहनी थी। वह लगातार गर्भगृह में आते दर्शनार्थियों को दर्शन हो जाने के बाद बाहर निकलने को कह रहा था। गर्भगृह में जितने भी पुरुष थे, वे सब मात्र पेण्ट में थे। शर्ट/बनियान किसी ने भी नहीं पहना था। यह नियम क्यों और किस कारण से है, यह समझ नहीं आया। लेकिन बहुत अच्छे से हमारे दर्शन हो गए। बिलकुल गर्भगृह में प्रवेश करके। भगवान घृष्णेश्वर के ज्योतिर्लिंग से मैंने एक बेलपत्र लिया, और अपनी जेब में रख लिया। पता नहीं क्यों मैंने ऐसा किया था?


    हम लोग मंदिर से बाहर निकले, परिसर में कुछ फोटोज क्लिक करवाए, तभी वहां इकट्ठी हो रही हम जैसे फोटो के दीवानों की भीड़ को एक सिक्युरिटी गार्ड भगाने लगा। मैंने उनसे रेकवेस्ट की, हम लोग बहुत दूर से आए है। बस एक फोटो ले लेने दो। और वे मान गए। घृष्णेश्वर में जितने भी लोग से हमारा संपर्क हुआ, सारे ही बहुत शालीन और आवभगत वाले लोग थे। कोई भी धृष्टतापूर्ण व्यवहार नहीं करता यहाँ। हम मंदिर से बाहर आए, हमने अपने जूते वापिस लिए। और उनके इस शालीनता से प्रभावित होकर पंद्रह के बजाए पचास रूपये उन्हें दे दिए। 


वेरूळ की बारिश, बाजार और भावनाओं की खरीदारी

    दर्शन हो गए थे। अब हमें बाजार घूमना था। मेरे तय प्लान से हम लोग एक दिन आगे थे। एक ही दिन में हमने एल्लोरा और घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिए थे। तो हमने तय किया की अब कल घर की ओर निकल पड़ेंगे। तो जो भी खरीदारी करनी हो, वह यहीं से कर ली जाए। यहाँ की बाजार में ज्यादातर भगवान शिव तथा भक्ति को समर्पित वस्तुएं बिकती है। जैसा प्रत्येक मंदिरो के बाहर होता है, कुछ वैसी ही बाजार थी यह। अँधेरा हो चूका था, और लोग अपनी अपनी दूकान बढ़ा (बंद कर) रहे थे। मैंने एक रुद्राक्ष की माला लेनी चाही, लेकिन जितनी भी दुकानों में गया, हर दुकान में आर्टिफिसियल रुद्राक्ष थे। साफ़ दीखता है, प्लास्टिक के है। 


    हम लोग खरीदारी करने एक दुकान में घुसे ही थे, कि बड़ी जोरो से बारिश आ गयी। लाइट्स चली गयी। अँधेरा हो गया चारो ओर। दुकानदार अच्छे थे, उन्होंने ने हमें अपनी दूकान के भीतर खड़े रहने दिया था। यहाँ पर्स / बैग बहुत ज्यादा बिक रहे थे। वैसे भी कुँवरुभा का स्कूल बैग नया लेना ही था, तो यहीं से एक कपडे का बैग खरीद लिया। माताजी मंदिर जाते है, तो उनके लिए भी एक ले लिया। एक और बैग भी तो लेना पड़ेगा। वह भी ले लिया। कुछ फ्रिज मेग्नेट्स लिए - जिन पर घृष्णेश्वर, भीमाशंकर और त्र्यंबकेश्वर की तस्वीर बनी थी। मैंने थोड़ा सामान लिया, लेकिन पुष्पा ने ढेर सारा लिया। दुकानदार आंटी थी एक, उन्होंने जितना दाम बताया, मैंने मोलभाव किए बिना चूका दिया, तो उन्होंने ३-४ फ्रिज मेग्नेट्स मुझे फ्री दिए। क्योंकि मैंने डिस्काउंट नहीं माँगा था। 


समापन : थकान का सुख और यात्रा का अंत

    खरीदारी के बाद हम चल पड़े हाइवे पर, वही बार एंड रेस्टोरेंट पर। एक टेबल खाली दिखा, और पास के टेबल पर कुछ लड़के बैठे थे। हमें देखकर बोले यहीं बैठ जाइए। हम बैठ गए। वे लड़के सुरत से आये थे। सुरत में ज्यादातर लोग सौराष्ट्र के है, हीरों के व्यापार से जुड़े हुए। सौराष्ट्र की बोली सुनने के कारण मैंने उनके गाँव भी पूछ लिए। बहुत करीबी गाँव के निकले वे लोग। वैसे भी यहाँ मतलब महाराष्ट्र में गुजराती कहीं भी सुनाई पड़ जाती है। 


    हम लोग ने रात के भोजन में हल्का फुल्का आलू का सेवन किया। और फिर रूम पर चल दिए। इस समय पर यह तीन मंजिला इमारत के सारे रूम भर गए थे। होटल वाले अंकल का लड़का इधर उधर भागदौड़ कर रहा था। हमने उसे पकड़ कर अपने रूम का भुगतान किया। ताकि अगर हम सवेरे जल्दी भी निकल जाए, तो भुगतान करने के लिए सवेरे सवेरे उसे जगाना न पड़े। 


    आज काफी भागदौड़ रही थी। इस लिए रूम में पहुँचते ही सारे ही बिस्तर में गिर पड़े। और लगभग दस बजे तक में ही मैं तो निंद्रा के वश में जा चूका था। 


    शुभरात्रि। 

    २३/१०/२०२५

|| अस्तु ||


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