जिम्मेदारी और सफर – थकान से आगे की कहानी
प्रियम्वदा !
सौ बात की एक बात, जो अपनी जिम्मेदारियां जानते है, उन्हें थकान होते हुए भी काम को निभाना होता है। बाकी सब कुछ पीछे छूट सकता है, लेकिन काम नहीं। काम से ही आमदनी होती है, आमदनी से घर चलता है, और घूमना भी। मैं हमेशा ही ट्रेवल से लौटकर सीधे ही ड्यूटी जॉइन कर लेता हूँ। मैंने कभी भी रेस्ट के नाम पर एक्स्ट्रा ब्रेक नहीं लिया। चाहे कितना ही थका हुआ होऊं, काम खींच लेता हूँ। बीते कल सुबह आठ बजे ड्राइविंग सीट पर बैठा था। आज सुबह आठ बजे घर पहुंचा हूँ। नहीं, चौबीस घंटे ड्राइविंग नही की है मैंने कोई। बस 1000 किलोमीटर का सफर तय करने में मुझे चौबीस घंटे लग गए। चलो फिर कहानी नए दिन से ही शुरू करते है, मतलब की तारीख जहां से बदलती है वहां से.. रात के बारह बजे से।
दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे का अनुभव
ऐसा है, एक्सएक्ट समय तो अब याद नहीं है, लेकिन गूगल मैप्स के सहारे हम अंकलेश्वर शहर को चीरते हुए गुजर रहे थे, उसके बाद हम भरूच हाइवे पर निकले। वही भरूच हाइवे, जो अंकलेश्वर को बाईपास करके जा रहा था। गूगल देव ने किलोमीटर बचाने के चक्कर मे शहर के रेडलाइट्स और गलियों के बम्प्स से हमें रूबरू करवाया। भरूच के बाद दहेज वाले रोड से हमें यह दिल्ली मुम्बई एक्सप्रेसवे मिल गया। क्या बखान करूं इस दिल्ली मुम्बई एक्सप्रेस वे का.. पिछले कुछ दिनों में हमें इतनी थकान हुई थी, कि हर कोई बस आराम फरमाना चाहता था। यह दिल्ली मुम्बई एक्सप्रेसवे तो सीधी रेख में चलता है। न किसी को ओवरटेक करने की झंझट, न कोई बम्प पर ब्रेक करने मगजमारी। बस एक्सलरेटर दबाकर बैठ जाओ.. कुछ भी नहीं करना है।
जब सड़कें सीधी रेखाओं में गाने गुनगुनाती हैं
पुष्पा को मैंने कह दिया था, "तुझे जितनी नींद खींचनी है, उतनी खींच ले, आज शायद तुझे ड्राइविंग करना पड़ेगा।" एक्सप्रेसवे पर चढ़ते ही वह सो गया। उसका मोबाइल कार की इंफोटेनमेंट सिस्टम के साथ वायर से कनेक्टेड था। तो मेरा फोन ब्लूटूथ से कनेक्ट नही हो पा रहा था। उसका फोन वायर से कनेक्टेड रहना जरूरी था, क्योंकि मारुति सुजुकी के इस इंफोटेनमेंट सिस्टम की यही समस्या है, कि इसमें अगर मैप चलाना है, तो वायर द्वारा फोन कनेक्टेड होना चाहिए। मैप जरूरी है इस रोड पर। क्योंकि इस एक्सप्रेसवे पर दो से तीन अलग अलग वडोदरा के लिए एग्जिट आते है। हालांकि हमें तो अहमदाबाद जाना था, लेकिन इतने सारे वडोदरा के एग्जिट देखकर कार चलाता ड्राइवर कंफ्यूज हो सकता है। मैंने अपने फोन पर ही अपनी फेवरिट प्लेलिस्ट बजा दी, और फोन को शर्ट की जेब मे रख लिया। इस रोड पर मजेदार बात यही है, कि आपको कुछ भी नही करना है। बस रोड पर नजर रखनी है, और एक्सलरेटर को दबाए रखना है।
रात के एक बजे मैं अहमदाबाद से बाहर निकल चुका था। लगातार कार 100 से ऊपर की स्पीड पर चलती रही थी। वडोदरा (बड़ोदा) से अहमदाबाद का एक्सप्रेसवे अब पुराना हो चुका है। ट्रैफिक बहुत ज्यादा चलता है। फोरलेन रोड है, इस कारण से बार बार लेन एक्सचेंज करते रहना पड़ता है, एक निर्धारित स्पीड को बनाए रखने के लिए। एक घंटा लगता है, वडोदरा से अहमदाबाद पहुंचने में। 95 किलोमीटर है शायद। एक्सप्रेस वे से उतरते ही फिर से एक बार गूगल मैप ने हमें अहमदाबाद शहर में घुसा दिया। इतना अच्छा था, कि रात होने के कारण लोकल ट्रैफिक कम था। और ट्रैफिक सिग्नल्स बन्द थे। लेकिन बम्प्स.. अहमदाबाद के बम्प्स का तो क्या ही कहना? कसम से, अगर उन बम्प्स पर हरी चादर चढा दी जाए, तो पीर की दरगाह लग सकते है। अहमदाबाद के एक बम्प पर बातों बातों में मैंने सड़न ब्रेक मारी। ठीक उसी समय कार रूक तो गयी, लेकिन कोई चूं-चूं की सतत आवाज़ आने लगी।
मैंने शान्तिपुरा फ्लाई ओवर के ठीक पहले कार रोक ली। कार से उतरा, सारे टायर चेक किए, कार फिर से चालू की, तो फिर से आवाज़ आने लगी। इस बार ध्यान गया, तो पता चला, आवाज़ FM से आ रही थी। इंफोटेनमेंट सिस्टम को म्यूट करते ही आवाज़ बंद हो गयी। इस बात पर हम लोग वहीं खड़े खड़े खूब हँसे.. हमें लगा था कि मैंने सडन ब्रेक मारी इस कारण से कोई खराबी आ गयी कार में। उतने में सर के ठीक ऊपर से एक एयरोप्लेन उड़ा। बहुत नीचा था। इतना नीचा था कि मुझे पहली बार अहसास हुआ, कि एयरोप्लेन में भी हेडलाइट होती है। जैसे कार जैसे वाहनों में होती है, दो हेडलाइट..! मैं दो बार फ्लाइट का सफर कर चुका हूँ। लेकिन कभी यह ख्याल नही आया था कि एयरोप्लेन में हेडलाइट्स होती है या नहीं। आज देख भी ली। आश्चर्य के साथ साथ भय भी उपजा मन में। और कुछ ही महीनों पूर्व हुआ एयर इंडिया हादसा आंखों के आगे तैरने लगा। ठीक सर के ऊपर इतना नीचा प्लेन, जब दूसरी बार आया, तब तो हमने कार स्टार्ट करके आगे का सफर भी शुरू कर दिया था।
नींद से जंग और दोस्ती की पहरेदारी
साणंद के आसपास मैंने पहला चाय ब्रेक लिया। भरूच से लगातार कार चल रही थी, अहमदाबाद भी पार कर लिया था, और अब साणंद के बाद तो सीधा मालिया तक हाइवे पकड़ रखना था। तो यहीं स्टॉप ले लेना बनता भी था। रजवाड़ी की कड़क चाय पी। एक सिगरेट, और एक मावा चढ़ाया। दिल्ली मुम्बई एक्सप्रेस वे, और अहमदाबाद वडोदरा एक्सप्रेस वे पर उड़ते मच्छर और कीड़ों ने कार की विंडशील्ड पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। उनकी सैंकड़ों लाशें अब ड्राइविंग सीट से सामने का व्यू भी रोकने लगी थी। तो यह शीशा साफ करना अनिवार्य था। न्यूज़ पेपर से कार का शीशा साफ किया। टायर तो ठंडे ही थे, बोनट भी ठंडा हो गया। और लगभग आधा घंटा इन सब मे स्टॉप लेकर हम फिर से एक बार निकल पड़े। पुष्पा फिर से सो गया। बहादुर तो है ही नींद बहादुर। वो तो सोता ही रहता है। बचा मैं अकेला, ड्राइविंग कर रहा था, नींद आ भी रही थी, और नहीं भी.. पुष्पा को याद आया, मैं सो गया तो सब सो जाएंगे। वह जाग गया, और मुझे जगाते रहने की कोशिश करता रहा। मुझे बातों में उलझाने लगा।
कनैया टी स्टॉल की चाय और एम्बुलेंस वाला पायलट
पुष्पा तरह तरह की बातें कर रहा था। ताकि मैं जागता रहूं। मैं भी मूर्ख पुष्पा को कार चलाने देने की बजाए, खुद को आजमाने में लगा था। सापुतारा से निकलने के बाद अभी तक कार चल ही रही थी। चार बजे निकले थे सापुतारा से। अब रात का डेढ़ बजे रहा था शायद। अगला स्टॉप निश्चित था हमारा। हळवद तीन रास्ते पर कनैया टी स्टॉल। पिछली बार जब उज्जैन से लौट रहे थे, तो अहमदाबाद के बाद मुझे नींद चढ़ने लगी थी। लेकिन इस कनैया की चाय पीने के बाद सारी नींद कहीं छूमन्तर हो गयी थी। इस बार कनैया की चाय भी अपना वह जादू नही बिखेर पाई। नींद की पकड़ में मैं कैद तो हो रहा था, लेकिन बार बार उससे खुद को छुड़वा लेता था। ऐसे मामलों में एक और ट्रिक है जागते रहने की। किसी कार का पीछा करो.. अहमदाबाद से ही एक एम्बुलेंस मेरे आगे आगे चल रही थी। मस्त पायलट (एम्बुलेंस के ड्राइवर को पायलट कहा जाता है।) था कोई, अस्सी की स्पीड को इक्यासी नही होने दे रहा था वह। वह शायद उसी रूट पर ज्यादा चलता होगा, तो उसे पता भी था कहाँ कहाँ बम्प है। उसने मुझे कितने ही बम्प्स कूदने या सडन ब्रेक मारने से बचा लिए।
मैं उसका पीछा इस कनैया तक करता रहा था। कनैया पर आधे घण्टे का ब्रेक लिया। और यहां से मैंने एक इंनोवा का पीछा करना शुरू कर दिया। रास्ते मे एक जगह मात्र लघुशंका करने के लिए कार रोकनी पड़ी, उतने में वह इनोवा भी बहुत दूर निकल गयी। अब आंखे घिरती जा रही थी। क्योंकि चौबीस घंटे होने में अब कुछ ही समय बचा था। मालिया ऑनेस्ट तक कार पहुंचा दी। मेरे दोनों ही सहयात्रियों ने यह सफर ज्यादातर सोते हुए ही निकाला। ऑनेस्ट के टॉयलेट्स बड़े साफ सुथरे होते है, और बहुत लोग यहां स्टॉप लेते है। हर समय यहां मेले जैसा माहौल रहता है। मैंने यहाँ टॉयलेट यूज़ करके कार उठायी, सीधे ही सूरज बारी। यहां से सामखियाली नजदीक ही है। और सामखियाली से ठीक पचास किलोमीटर घर की दूरी है।
सूरज बारी से घर तक – एक अंत नहीं, नई शुरुआत
मैंने सुना, कार में एक बार पुष्पा खर्राटे लेता, उतने में पीछे से बहादुर के खर्राटे सुनाई पड़ते। इतना जरूर से समझ आ गया, कि अब पुष्पा को उठाकर उसे ड्राइविंग नहीं देनी चाहिए। क्योंकि वह नींद से उठकर कार चलाए, और मैं पास मैं बैठा हुआ सो जाऊं तो उसके लिए कार चलानी ज्यादा मुश्किल होगी। मैंने सोच लिया, किसी होटल की पार्किंग में कार रोक कर एक झपकी ले ली जाए। मैंने यही सोचा था, लेकिन फिर विचार आया, कि थोड़ी और चला ली जाए, अभी सामखियाली के बाद सिक्स लेन हाइवे मिल जाएगा। ड्राइविंग और आसान हो जाएगी। यही सोचकर मैं चलाता रहा। आंखे बार बार बंद होने को होती। मैं बार बार जागते रहने के लिए गाने गाता रहा। कुछ ही देर में भचाऊ पहुंच गया। भचाऊ के लिए फ्लाई ओवर उतर ही रहा था, कि एक टैक्सी ने इतने जोर से हॉर्न मारा की मुझे गुस्सा चढ़ आया। अब तो घर के नजदीक ही था, पावर लौट आना इसे ही कहते है शायद। मैंने कार में बैठे बैठे ही उसे बड़ी सी गाली दी। उसने रख भी ली। शायद वह अजरख देख चुका था। भचाऊ में एक के बाद एक दो रकाबी चाय पी, और एक कड़क मावा मूंह में दबाया। अब हल्का हल्का उजियारा हो गया था। समय तो याद नहीं लेकिन शायद छह बजे गए थे।
घर की आरती, थकान की जीत और सीखें इस सफर की
अब तो उजियारा देखकर ही नींद उड़ गई। कुछ ही देर में ऑफिस आ पहुंचा था। ऑफिस पे बहादुर को उतारा। उसके बाद पुष्पा को उसके घर उतारा। और मैं अपने घर पहुंचा तो ठीक आठ में पांच मिनिट कम थी। घर मे प्रवेश करने से पूर्व माताजी ने स्वागत किया। आरती का थाल, और तिलक विधि, जैसे मैं कोई जंग जीत कर आया हूँ.. हाँ शायद मैंने अपनी ड्राइविंग की क्षमता पर जीत जरूर पाई थी। शायद मैंने अपनी नींद से हुई लड़ाई में जीत पाई थी। शायद मैंने अपनी तमाम हदों पर जीत पाई थी। घर पहुंचते ही कुँवरुभा अपने गिफ्ट्स मांगने लगे। कार की बूट में रखे हुए उनके गिफ्ट्स उन्हें दिए। और सीधे बाथरूम में नहाने चला गया। नहाधोकर नाश्ता किया। और बैड पर पसर गया।
ग्यारह बजे तो मैं ऑफिस पहुंच चुका था। सरदार बैठा हुआ था। पुष्पा आया नही था। और मैं अकेला ही ऑफिस पर काम निपटा रहा था। कईं सारे काम थे। धीरे धीरे कर सारे ही निपटा दिए। दोपहर तीन बजे कुर्सी पर ही एक नींद की झपकी ले ली। शाम तक मे मेरी बैटरी फिर से डाउन होने लगी। और सात बजे तो घर भी लौट आया। खाना खाकर सो ही गया।
वाकई, यह ट्रिप काफी यादगार रहेगी। इस ट्रिप ने बहुत कुछ सिखाया है। महाराष्ट्र के लोग अच्छे भी है, तो कुछ अधिकारी बुरे भी। कुछ खाना बहुत अच्छा है, तो कुछ खाने की अति हो चुकी है। कुछ हवामान पसंदीदा है, तो कुछ खौफनाक भी। कुछ रोड मख्खन जैसे है, तो कुछ रोड ओमपुरी के चेहरे से। कहीं पर थकान हुई, तो कहीं पर नज़ारों ने सारी थकान मिटा दी। कहीं पर गुस्सा आया कुछ लोगों पर, तो कहीं पर लोगों ने स्नेह भी दिया। मन मे एक ख्वाहिश बाकी रह गयी, वह थी भीमाशंकर में हमें स्टे नही मिला। वहां अगर रूक पाते तो काफी रोमांचक रहता। जंगल के बीच मे अगर सुबह सुबह टहलना भी अपने आप मे काफी मजेदार रहता है, खास कर उनके लिए, जो कॉन्क्रीट के जंगलों से आए हो।
शुभरात्रि।
२५/१०/२०२५
|| अस्तु ||
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