“वेरूळ से सापुतारा तक : महाराष्ट्र की आख़िरी सुबह और घर वापसी || दिलायरी : 24/10/2025

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सवेरे की शुरुआत: वेरूळ से विदाई और बेस्वाद नाश्ता

    प्रियम्वदा !
    कभी कभी ऐसा भी होता है, कि आप अपनी जगह सही और सच्चे हो, सामने वाला व्यक्ति भी अपनी जगह सच्चा हो, लेकिन परिस्थिति, या मनोस्थिति, या लघुताग्रंथि ऐसी निर्माण हो जाती है, कि आपको निरपराध होकर भी दंड चुकाना पड़ता है..! और यह विपरीत परिस्थिति से बाहर निकलने के लिए आप कुछ भी कर जाते है, एक और अपराध भी.. लेकिन यह अपराध, उस निरपराधी स्थिति से बहार निकलने के लिए जरुरी होता है। इस अपराध को अपना आत्मबोध ही अपराध मानता है। और किसी को पता नहीं होता है। ऐसा ही कुछ हुआ हमारी इस महाराष्ट्र रोडट्रिप के अंतिम दिवस में, महाराष्ट्र से गुजरात लौटते हुए हमने बेफालतू में दंड चुकाया।

“पहाड़ी सड़क पर पुलिस चेकपोस्ट के सामने रुकी एक कार — जिसमें बैठा राही दस्तावेज़ दिखा रहा है, और पुलिस निरीक्षक शांति से जांच कर रहे हैं; सादा सफेद पृष्ठभूमि पर यात्रा के ठहराव का प्रतीक दृश्य।”

    आज सवेरे मुझे तो काफी जल्दी उठकर घर वापसी की यात्रा शुरू कर देने का मन था। लेकिन फिर भी जब आँखे खुली तब घड़ी छह बजने का इशारा दे रही थी। फ़ोन के अलार्म बजबजकर चुप हो गए थे, और जैसे मुझे चिढ़ा रहे हो, वैसे फोन की डिस्प्ले पर नोटिफिकेशन दे रहे थे। पुष्पा रूम में इधर उधर टहल रहा था, और आश्चर्य की बात है, कि नींद बहादुर चलती कार में सो जाने के लिए नहाने गया था। एक के बाद एक हम लोग नहाधोकर तैयार होकर होटल छोड़ रहे थे, तब समय हो चूका था, सवेरे के आठ। 

    वेरूळ से निकलते ही, रेस्टोरेंट दिखा, नाश्ता यहीं कर लेने की ठानी। सवेरे सवेरे सबसे बड़ी गलती। रेस्टोरेंट वाला अकेला आदमी था। और ग्राहकों की भीड़ हो चुकी थी। यहाँ भी पोहे, मिसळपाव, वडापाव.. यही सब नाश्ते में था। हमने फिर से पोहे आर्डर दिए। बड़े ही बेस्वाद पोहे आए, नमक ज्यादा डाला था। या फिर यहाँ पोहे में कांदा (प्याज) की मात्रा अधिक होने के कारण खारे लग रहे थे। यह स्वाद मेन्टेन करने के लिए मैंने चाय मंगवाई। लेकिन रेस्टोरेंट वाला अकेला होने के कारण चाय नहीं दे पा रहा था। ऊपर से हमने पहले आर्डर दिया, फिर भी किसी और को पहले चाय देने लगा। मैंने उसकी ट्रे से तीन चाय उठा ली। वो मेरे सामने देखता रह गया। 

समृद्धि महामार्ग पर रफ़्तार और गाँवों की झलकियाँ

    नाश्ता करके एक मावा, सिगरेट के दम लिए और फिर हम चल पड़े। यहाँ से हमे वैजापुर तक तो फिर से समृद्धि महामार्ग लेना था। वैजापुर से हमने सापुतारा होकर गुजरात पहुंचना था। एक बार गुजरात में दाखिल हो गए फिर तो हमें कोई टेंशन नहीं थी, फिर तो चाहे कितना ही लेट पहुंचे। गुजरात के रास्तो पर एक विश्वास रहता है। हर किसी को अपने राज्य के रास्ते पर भरोसा होता ही है। क्योंकि वहां अपनी बोली का विश्वास होता है। 

    समृद्धि महामार्ग पर एकसौ ग्यारह किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से, दो रूपये साठ पैसे प्रति किलोमीटर का टोल-मूल्य चुकाकर कुछ ही देर में हमने वैजापुर के लिए यह महामार्ग छोड़ दिया। वैजापुर से सापुतारा तक, महाराष्ट्र के गाँवों से गुजरते हुए हम लोग यात्रा किए जा रहे थे। छोटे छोटे गाँव, कोई किसान अपना ट्रेक्टर लिए खेत के लिए निकला हुआ था, तो कोई अपना खेत उत्पाद ट्रेक्टर की ट्रॉली में लादकर मंडी जा रहा होगा शायद। कोई बाइक वाला अचानक इस रोड पर चढ़ जाता, तो किसी बंप पर कोई कार वाला खींचकर ब्रेक मार देता। 

    मुझसे आगे चलती एक कार ने बंप पर खड़ी ब्रेक लगा दी, इसे देखकर मैंने अपनी कार बायीं ओर दबाते हुए खींचकर ब्रेक की, मैंने अपने रियर व्यू मिरर में देखा। एक बाइक वाला, बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को कण्ट्रोल करके, मेरी कार से टकराने से बचते हुए मुझसे आगे निकला। वह हाईवे के बिच में खड़ा हो गया। जैसे मैं उसके नजदीक पहुंचा, वह मुझसे कहने जा ही रहा था, कि ऐसे ब्रेक कौन मारता है? लेकिन मुझे अपने से आगे वाली कार को गाली देता देखकर वह भी शांत हो गया। समझदार था। 

    एक ही कार चल पाए ऐसे रास्ते से चलते हुए हम लोग बड़ी ही मंद गति से चल रहे थे। सवेरे ढंग का नाश्ता हुआ नहीं था। ऊपर से ऐसी सड़क.. और वेरुल से बहुत आगे निकल आए थे। एक बार एंड रेस्टोरेंट देखकर मैंने कार रोक ली। इस सड़क पर कार चलाना अपने आप में सरदर्दी थी। नींद बहादुर तो अपना मस्त नींद का कोटा पूरा कर रहा था। उसे कैसे नींद आ सकती है, ऐसी सड़क पर, जहाँ मैं कभी ब्रेक मारता हूँ, कभी टर्न लेता हूँ। लेकिन वह मस्त सोता ही रहा था। पुष्पा भी परेशां हो चूका था। मैंने कार रोकते ही, वह भी "हाश" बोल पड़ा। 

    बार के बाहर ही टॉयलेट बना हुआ था। मैंने अपना हाथ मुँह धोया। वहां एक आदमी था, मुझे देखकर बोला, "बापु ! सोनगढ़?" मैं चौंक गया, महाराष्ट्र में यह कौन पहचान गया? उससे बातचीत हुई, वह गुजरात के सुरत के पास किसी गाँव का था.. मेरे गले में लिपटा अजरख देखकर उसने अंदाजा लगाया, कि है तो बापु। सोनगढ़ नाम के दो-तीन गाँव है गुजरात में। मैंने उस बारे में उससे स्पष्टता नहीं पूछी। 

    पुष्पा और बहादुर अपने जौ के पानी के साथ फिर से बैठकी लगाकर बैठ गए थे। मुझे ड्राइविंग करनी थी, और गुजरात बॉर्डर बहुत दूर नहीं थी, इस कारण मैंने एनर्जी ड्रिंक लिया। कुछ देर आराम फ़रमाया, और फिर चल दिए। यह रास्ता गाँवों से होते हुए जाता है, और बिच में एक ही बड़ा गाँव पिंपलगाव नामक आने वाला था। कार में इतना पेट्रोल तो था, कि हम लोग गुजरात में पहुँच जाएंगे। इस लिए अब बस रस्ते का ध्यान रखना था। 

    पिम्पलगांव पहुँच गए, यह गाँव नाशिक-मालेगाव-धुळे के रास्ते पर होने के कारण बड़ा गाँव है। यहाँ भी एक बियर एंड वाइन शॉप देखकर पुष्पा ने एक-एक जौ के पानी की बोतल ले ली। बार में पचास रूपये प्रति नंग अधिक चुकाना पड़ रहा था। आधिकारिक शॉप पर एमआरपी भाव से ही सामान मिलता है। कुछ ही देर में हम वणी पहुँच चुके थे। वणी से पहाड़ियां दिखने लगती है। सह्याद्रि की पर्वतमाला। वणी से एक रास्ता सप्तश्रृंगी जाता है। सप्तश्रृंगी पर प्रसिद्द शक्तिपीठ है। 

    हमें तो घर पहुंचना था, और वेरूळ से घर पूरा १००० किलोमीटर था, कहीं भी रुकना, हमें और देरी से घर पहुंचाता था। हम वैसे भी सापुतारा में रुकने वाले थे। मेरा बड़ा मन था, सापुतारा में पैराग्लाइडिंग करनी थी मुझे। वैसे भी हम लोग अब अंडर बजट थे। क्योंकि भीमाशंकर में हमें होटल नहीं लेनी पड़ी थी, और घृष्णेश्वर में भी हमने एक ही रात का स्टे लिया था। वणी से निकलते ही, दोपहर का एक बज रहा था। लंच यहीं महाराष्ट्र में कर लेना तय किया। 

ढाबे पर ठहराव और वह अनजान चेकपोस्ट सामना

    एक रोडसाइड ढाबा दिखा, वेज-नॉनव्हेज दोनों था। नींद बहादुर को समंदर खाना था.. पुष्पा वेज के प्रति कटिबद्ध है। और मैं मौकापरस्त हूँ। मुझे सब चलता है। मैंने कभी वो चोंचले नहीं किये है, कि आज मंगलवार है। मैं अपने मनमर्जी का दास हूँ, मुझे जिस समय जो सही लगे, और जो इच्छा हो, वह उसी समय पूरी कर लेने के लिए तत्पर होता हूँ। 

    ढाबे के पार्किंग में मैंने कार रोकी, और मैं भीतर पूछने गया, कि मेनू में क्या क्या है? वेज में केवल दाल मिल सकती थी, और नॉनव्हेज में तीतर-बटेर और फार्म वाली मुर्गी थी। मैं मेनू जानकार वापिस लौटा तो, पुष्पा और बहादुर बोतल खोले बैठे थे। इनको लगा था, कि यहीं पीकर भोजन कर लेंगे, और फिर गुजरात में दाखिल हो जाएंगे, कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन समस्या तो होनी ही थी। 

'ये नहीं देणार साहेब' – निरपराधी का दंड

    यहाँ का मेनू हमें जरा भी पसंद नहीं आया। तो हमने तय किया आगे और किसी ढाबे पर रूक जाएंगे। हम यह भूल गए थे, कि पुष्पा और बहादुर खुली बोतल लेकर बैठे है। हम लोग अगले ढाबे के लिए निकले ही थे, और आगे प्रशाशन की एक चेकपोस्ट आ गयी। उन वर्दीधारियों का परिचय देकर मैं मामला बढ़ाना नहीं चाहता। लेकिन उनसे विचित्र व्यक्तित्व मैंने कहीं नहीं देखा। यह बात तो तय है, कि वे जिस चीज के लिए खड़े थे, वो काम उनका हो गया हमें रोकने से। 

    गुजरात पार्सिंग की कार वे खास रोकते दिखे। मुझसे लाइसेंस माँगा, और कार का रजिस्ट्रेशन और PUC सर्टिफिकेट भी। मेरे पास सब कुछ ओरिजिनल डॉक्यूमेंट थे। मैं गुजरात से निकला तब मैंने सब कुछ अपडेट किया था, और खास ध्यान रखकर अपने साथ ले लिया था। मैंने कार साइड में रोककर लाइसेंस उन्हें दिया, और RC तथा PUC अपने कार बैग से निकालकर उन्हें देने लगा, उतने में साहब ने कार में पीछे बैठे बहादुर के हाथ में खुली बोतल देख ली।

    साहब जोश में आ गए। सकते में भी। एकदम से रुआब बदल गया। कड़क होकर उन्होंने मुझसे कहा, "इसकी परमिशन है क्या? यह रोड गवर्नमेंट की प्रॉपर्टी है। यहां यह सब अलाउ नहीं है।" मुझे समझ में आ गया। तेल और तेल की धार भी। मैंने उन्हें एक बार सविस्तार मुद्दा समझाने की कोशिश की, "हम लोग पिछले ढाबे पर खाने के लिए रुके थे। वहीँ पर यह खत्म करने वाले थे। लेकिन वहां किचन स्टाफ और मेनू दोनों हमें समझ नहीं आए, इस लिए हम लोग आगे के ढाबे पर जा रहे है। रोड पर किसी ने भी ड्रिंक नहीं किया है।"

     परिस्थितियां हम से विपरीत थी। उन साहब की जगह कोई और भी होता तो, वह यही समझता की, हम लोग चालू कार में ड्रिंक कर रहे थे। साहब हमारी व्यथा तो समझ गए थे। लेकिन उनके लिए यह एक मौका था। साहब ने एक ही बात का रटन चालु कर दिया। पुलिस केस करूँगा। और कोई बात नहीं। वहां मौके पर दो अधिकारी थे। एक साहब कार में बैठे थे, मैंने उन्हें भी वही मुद्दा समझाया, लेकिन अपनी सच्चाई हमें मुबारक, उनके लिए यह एक सुअवसर था। एक अफसर दूसरे को बार बार जोर से कह रहा था, 'ये नहीं देणार साहेब।'.. मुझे समझ तो आ गया था, लेकिन मैं अपनी स्पष्टता देता रहा। 

    साहब ने हम पर थोड़ा और प्रेशर बनाने के लिए कार चेक की। मावा का पैकेट मिला उन्हें। अब तो और सकते में आ गए। बोले, यह बेन है यहाँ। मावा-तम्बाकू नहीं चलता इधर। अब तो कोर्ट केस होगा। उनकी वर्दी पर स्टार देखकर मुझे अंदाज़ तो आ गया, कि यह अधिकारी चाहे तो हमें बिठाकर रख सकता है। मैंने उनसे फिर से रिक्वेस्ट की, आप चाहो तो puc का फाइन लगा दो। मैं यहीं फाइन भरने को तैयार हूँ। बोले दस हजार का फाइन है, तुम नहीं भर पाओगे। मैंने उन्हें यहाँ तक कहा, कि हम लोग महाराष्ट्र घूमने और दर्शन करने आए थे। यह तो हम गलत परिस्थिति में फंस गये है। जब हम लोग सारे कागज़ पुरे लेकर चलते हो, और हम तीनों ही पढ़े लिखे है, नियमों का पालन करने वाले लोग है, और हमारा यह बहादुर तो पुलिस भर्ती की ही तैयारी कर रहा है। तो हम कानून का उल्लंघन क्यों करेंगे? 

    लेकिन मेरी यह दलील भी फ़ालतू गयी। एक अधिकारी ने दूसरे अधिकारी को अब तीसरी-चौथी बार कहा, 'साहेब ! ये कुछ नहीं देणार, केस कर दो।' मैं समझ तो सब रहा था। लेकिन क्या कर सकता था? वह हमे कायदे से धमकाने लगा था। अब मुझे भी गुस्सा आ रहा था। मैंने सीधे ही कहा, "ठीक है ! स्कैनर दीजिए। मैं दस हजार भर देता हूँ। या आप ऑनलाइन फाइन कर दीजिए। मैं यही हाथोहाथ पेमेंट कर देता हूँ।" मुझे अब और बहस नहीं चाहिए थी। मैं यहाँ घूमने आया था, इस तरह किसी कानून के मायाजाल में उलझने के लिए नहीं। मैंने उन्हें अपनी स्थिति तीन-चार बार समझा चूका था। लेकिन साहबों के लिए यह अवसर था। 

    मेरे दस हजार देने के लिए राज़ी जाने पर एक साहब अब कुछ नरम हुए। दूसरा वाला अभी भी मुँह फुलाए गुजरात पार्सिंग की कार रोकने में व्यस्त था। साहब बोले, "देखो आप लोग मुझे सही आदमी लग रहे हो। मैं नहीं चाहता आप लोग इन कोर्ट-वोर्ट के चक्करों में फंसे। पांच हजार दे दो, और निकलो।" उनकी सामने से यह डिमांड देखकर फिर से मेरे भीतर का गुजराती जाग गया। मुझे कैसे भी कर के यह परिस्थिति से बाहर निकलना था। मैंने साहब से कहा, "साहब, वापसी में पेट्रोल के पैसे टूटेंगे। थोड़ा कम कर दीजिए। दो हजार कॅश पड़ा है। दे देता हूँ।" उन्होंने ने मना किया। 

    मैंने थोड़ा और बढ़ाया, तीन हजार में रफा-दफा कर दीजिए। हम लोग बुरे आदमी नहीं है, बस गलत समय पर गलत जगह पर फंस गए है। उन्होंने तीन में भी मना किया। इस बार मैंने सीधे ही वॉलेट से पेंतीसौ निकाले और उनके हाथ में देने लगा। वे झट से पीछे हट गए। बोले, "वो साहब को दो।" वो दूसरे साहब को पास बुलाया, "लो सर ! साहब ने आपको देने को कहा है।" वो साहब भी नजदीक नहीं आ रहे थे। बोले, "कैमरा निचे करो।" अब मैं परेशान, कौनसा कैमरा? मैंने उनकी और प्रश्नार्थ नज़रों से देखा। उन्होंने इशारा किया, शर्ट की जेब में फोन है, वह पेण्ट की जेब में रखो। मैंने देखा, मेरा फोन शर्ट की जेब से थोड़ा बाहर था, और कैमरा उनकी तरफ था। उन्हें लगा होगा, यह विडिओ बना लेगा। 

    मैं पागल हूँ क्या, जो इस तरह एक अपराध करते हुए खुद का विडिओ बनाऊं? लेकिन वे झिझक रहे था, इस लिए मैंने अपना फोन जीन की पिछली पॉकेट में रख दिया। और कॅश उनके हाथ में पकड़ा दिया। उन्होंने पूछा, "कितना है?" मैंने कहा, "साहब ने बताया उतना है।" कार में बैठा साहब रैंक में इससे बड़ा था। 

पश्चाताप और थकान में भी चलती यात्रा

    मेरा दिमाग खराब हो चूका था। निराशा छा गयी थी, हमारी कोई गलती नहीं थी। लेकिन सामने वाले के लिए यह एक गलती थी। हाँ ! वैसे अब यह भुगतान कर देने के बाद तो मैं भी इसे हमारी गलती मान रहा था, पुष्पा और बहादुर ने जिस ढाबे में यह बोतलें खोली थी, मुझे उन्हें वहीँ पूरी कर लेने देना था। मैं खामखा समय बचाने के चक्कर में अगले ढाबे के लिए निकल पड़ा। उन दोनों ने वहीँ यह विधि समाप्त कर ली होती, तो यह पेंतीसौ हमारे बच जाते।  रही बात मावा के पैकेट की, तो घृष्णेश्वर में मावा मिलता ही है। उनके पास तो उल्टा मशीन था, मावा मिलाने का। यह कैसा बेन है, एक जगह तो खुलेआम मिलता है। लेकिन बाहर से आया हुआ, अपने साथ नहीं ले जा सकता। जब आप कोई बेवजह झमेले में फंस जाते हो, तब यह पश्चाताप और अधिक काटता है। 

    मैने उन साहब से जाते जाते कहा, मैं तो अब जीवन में कभी महाराष्ट्र नहीं आने वाला। जाते जाते यह जो अनुभव मिला है, यह हमेशा याद रहेगा। इस बात पर उसने भी मुँह बिगाड़ा। यहाँ से निकलकर हम ठीक आगे एक देशी ढाबा बना हुआ था। महाराष्ट्रियन स्टाइल सेटअप था। और महाराष्ट्रीय गाँव के स्टाइल से भोजन का बैनर लगा हुआ था। मैंने यहीं कार रोक ली। उन बोतलों का पानी अब बेस्वाद हो चूका था। पुष्पा और बहादुर ने बचे हुए दो-दो घूंट यूँही फेंक दिए थे। इस ढाबे में आर्डर दिया। एक देशी चिकन हांड़ी, और वेज में एक पुलाव ले लिए। 

    मेरा मूड बिलकुल ऑफ था.. जरा भी मन नहीं था, लेकिन आर्डर आने के बाद पेट भरने के लिए मैंने एक रोटी खा ली। अकेला बहादुर कितना ही खत्म करता? उसने भी बस दो रोटी ही खायी थी। पुष्पा तो पहले ही अपने पेट में डेढ़ लीटर पानी उड़ेल चूका था। उसने भी पुलाव की प्लेट ऐसे ही छोड़ दी। होटल वाला हमें देखता रहा, और बोल पड़ा, "क्या हुआ? स्वाद सही नहीं है?" तो मैने कहा, "तुम्हारी गलती नहीं है भाई। भूख हमारी वो उसने मिटा दी।" मैंने रोड पर दूर खड़े दीखते उन अफसरों की ओर इशारा करते हुए कहा। 

सापुतारा की पहाड़ियों पर ठहरा हुआ मन

    सातसौ रूपये और बेफालतू में इस न खाए हुए भोजन का भुगतान करके हम निकल पड़े। थोड़ी ही देर में बोर्ड दिखा। महाराष्ट्र पोलिस की हद समाप्त। और आगे एक और बोर्ड दिखा, सापुतारा पुलिस की हद शुरू। गुजरात में लौट आने की मुझे कोई ख़ुशी नहीं हुई। दिमाग में अभी भी वही अनुभव घूम रहा था। हम जब वेरुळ से निकले थे, तो रास्ते में पड़ते सापुतारा में रुकने का कोई विचार नहीं था। सापुतारा तो हमने बस इस पहाड़ी रास्ते के लिए लिया था। आसपास का व्यू अच्छा दिखे इसी लिए। 

    लेकिन इस खराब अनुभव के कारण मेरा मूड बिलकुल ऑफ था, पुष्पा बार बार मूड ठीक करने की बात करता रहा। और उसीने कहा, "चलो, सापुतारा हिलटॉप पर चलते है।" मैंने पहले तो मना किया, लेकिन फिर मेरे कारण इन दोनों का मन था सापुतारा जाने का वह नहीं टाल सकता था। मैंने भी यही सोचा, कि हिलटॉप पर चल पड़ते है। कम से कम मूड सही हो जाएगा। और मैंने कार हिलटॉप के लिए मोड़ दी। एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित यह एकमात्र गुजरात का हिलस्टेशन है। चारोओर जंगलों से घिरा हुआ है। आसपास सह्याद्रि की पूरी पर्वतमाला है। 

    एक तो वैसे ही मूडऑफ़ था, ऊपर से गुजरात में एंटर होते ही पचास रूपये की कोई फॉरेस्ट पर्ची लेनी पड़ी। हिलटॉप के ऊपर चढ़े, वहां पार्किंग के नाम पर फिर से पचास रूपये छीन लिए। जबकि वहां तो पार्किंग तक कार पहुंचनी ही मुश्किल थी। कोई कैंपरवैन बिच रस्ते में खराब होकर खड़ी हुई थी। यहाँ काफी खड़ी चढ़ाई थी। ऊपर की और कार चढ़ानी हो तो निचे से एक मोमेंटम चाहिए। कार का मोमेंटम ब्रेक नहीं होना चाहिए। लेकिन बीचोबीच यह कैंपरवैन खड़ी होने के कारण ट्रैफिक लग गया। मैंने तो वहीँ एक जगह रोडसाइड में कार दबा दी। 

    तुरंत दो-तीन होमगार्ड के कर्मचारी दौड़ते हुए आए। बोले, "यहाँ कार खड़ी नहीं कर सकते। ऊपर पार्किंग है। वहीँ कार खड़ी करनी है।" मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, कि "भाई, मेरी छोटी कार है। इतनी स्टीप चढ़ाई के लिए पावर नहीं कर पा रही है। मुझे ऊपर ज्यादा देर रूकना नहीं है। दस मिनिट में तो वापिस आ जाऊंगा।" मेरे जैसे और भी कुछ अनुभवहीन ड्राइवर थे, वे भी मेरे साथ जुड़ गए। उनकी कार भी नहीं चढ़ पा रही थी। हालाँकि मेरी कार चढ़ तो जाती, लेकिन पुष्पा और बहादुर को कार से उतर जाना पड़ता। 

    हम पैदल ही चल पड़े। कुछ ही देर में टॉप पर थे। मुझे नहीं पता था, कि सापुतारा इतना सुंदर है। मैंने सुना जरूर था, कि सापुतारा बहुत सुंदर जगह है। लेकिन कभी जा नहीं पाया था। और आज ऐसे ही घर वापसी के रास्ते में पड रहा था, तो यूँही आ गया। दोपहर के तीन बज रहे थे। हमने काफी सारे फोटोज क्लिक करवाए। ऊपर से दूर दूर तक जंगल, जलाशय, छोटी मोती पहाड़ियों के शिखर, आसमान में बादलों से रेस लगाती एक चील, और दूर से आता हुआ एक काले घने बादलों का समूह दिखाई पड़ रहा था। 

    हवाएं काफी तेज़ चल रही थी। एक भुट्टे वाली औरत से हमने भुट्टा खरीदा। वह स्त्री मराठी बोल रही थी। कल तक घृष्णेश्वर में मराठी मुझे कर्णप्रिय लग रही थी, लेकिन आज 'ये नहीं देणार' वाले शब्द सुनकर मराठी कड़वी लगने लगी थी। अमेरिकन मक्का भी मीठा नहीं लगा। हाँ ! वैसे आजकल ट्रम्प भी तो कड़वा हुआ घूमता है। चलो जो भी हो.. सौ बात की एक बात। सापुतारा एक बार तो घूमने जैसा है ही। यहाँ दिवाली छुट्टियों के कारण बहुत ज्यादा चहलपहल थी। ऊपर घोड़े वालों से लेकर फोटोग्राफी वाले, और खाने पिने की तरह तरह आइटम के साथ बहुत सारी एक्टिविटीज भी होती है। 

    सामने ही अपनी पंख न होने के विशेषण को मिटाते हुए, कईं सारे लोग पैराग्लाइडिंग का लुत्फ़ उठा रहे थे। लेकिन अब मेरी जरा भी इच्छा नहीं थी। मैं उत्सुक था, जब इस ट्रिप पर निकला तब से। लेकिन फ़िलहाल मेरा कोई मन नहीं था। चार बजे करीब हम लोग निकल पड़े। क्योंकि यहाँ से भी कच्छ तो आठसौ किलोमीटर तो था ही। और अब गूगल मैप हमें डेस्टिनेशन रीचिंग टाइम सुबह के चार दिखा रहा था। मतलब बारह घंटे की सतत ड्राइविंग। इम्पॉसिबल ही थी।

फ्यूल, फिक्र और गुजरात की सुरक्षित सड़कों पर वापसी

    हम चल पड़े। सापुतारा से थोड़ा ही निकले थे, कि कार के फ्यूल मीटर ने लौ फ्यूल का इंडिकेटर दे दिया। सापुतारा काफी जंगल जैसा विस्तार है। पास ही डांग जिले का वन्यक्षेत्र मशहूर है। मैं पहली बार यहाँ आया था। मुझे नहीं पता था, अगला पेट्रोलपंप कितना दूर है? वैसे सापुतारा से पचीस किलोमीटर पर ही HP का पंप है। कार रिज़र्व में कितनी चलती है, यह भी कोई आईडिया नहीं था। मैंने अपनी स्पीड धीमी कर ली। और आगे बढ़ता रहा। पुष्पा ने गूगल मैप में अगला पेट्रोलपंप ऐड कर दिया था। हम लोकेशन पर पहुंचे, तो वहां कुछ भी नहीं था। दरअसल पेट्रोलपंप एक किलोमीटर और आगे है। यह गुजरात का आखरी पंप है, महाराष्ट्र की ओर जाते हुए। हमारे लिए यह पहला था। 

    अच्छा पंप था, सुविधाएं सारी थी। मैंने टंकी फुल करवा ली। और पानी की सारी बोत्तलें रिफिल कर ली। टॉयलेट भी काफी साफ़ सुथरा था। मैंने टैंक फुल करवा कर, कार साइड में पार्क कर दी। कार की विंडशील्ड साफ़ की। थोड़ी देर घर पर बात कर ली। और उनको कह दिया कि चिंता मत करना, सुबह तक पहुँच जाऊंगा। हुकुम का स्पष्ट कहना था, कि सुरत में होटल रूम लेलो, और रात रूक जाओ। सुबह जल्दी निकल जाना। नाईट ड्राइविंग मत करना। लेकिन मैंने उन्हें आश्वासन दिया, कि मैं सेफ ड्राइविंग ही करूँगा। अगर कहीं जरुरत लगी, तो रात को होटल रूम ले लेंगे। 

    यहाँ से तो अब कोई फ़िक्र न थी, सिवा गूगल मैप के आड़े-टेड़े रास्तों के। गुजरात में वापिस लौटकर यह आश्वासन तो जरूर से रहता है, कि नाईट ड्राइविंग सेफ है। बस यह डांग का इलाका उजियारे में हम छोड़ दे। है तो यह भी सेफ भी, लेकिन हमारे लिए अनजान जगह थी। वहां पंप पर कुछ और भी घुमक्कड़ लोग थे। वे लोग EECO कार में फुल फॅमिली ट्रेवल कर रहे थे। उन्हें तो सुरत तक ही जाना था। बातचीत में पुष्पा बड़ा माहिर है। बहुत ज्यादा एक्सट्रोवर्ट है। किसी से भी बात करने लगता है। पहचान बनाने लगता है। मैं उससे ठीक विपरीत हूँ, जब तक जरूरत न हो, कोई बातचीत नहीं। पुष्पा ने बातोंबातों में बताया, कि हम कच्छ लौट रहें है। तब उस फॅमिली को बड़ा आश्चर्य हुआ। बोलै एक ही आदमी इतनी लम्बी ड्राइविंग कर लेगा?

    मैंने कहा, मुझे शौक है गाडी चलाने का। पंद्रहसौ किलोमीटर तो काट चूका हूँ, आठसौ और सही। उनलोगो ने कच्छ में और जगहों की जानकारियां ली। और फिर हम चल पड़े। अब तो टंकी फुल दी, एक्सेलेटर दाबने में कोई डर नहीं था। मुझे तो पूरी नाईट कार खींचनी थी। इस लिए मुझे खाना खाने की जरूरत थी नहीं। खाना खा लेने से नींद आने लगती है। गूगल देवी कभी सिंगल लेन तो कभी टू लेन सड़क पर से हमें स्वर्णिम चतुर्भुज की और ले जाती रही। 

सुरत से भरुच तक – थकान, ट्रैफिक और ठहराव का अभाव

    थकान तो अनुभव होने लगी थी, लेकिन कार रोकने की जरुरत नहीं थी। हम चलते रहे। सुरत के आगे कामरेज भी पार करने के बाद, एक रोडसाइड रेस्टोरेंट देखकर कार रोकी मैंने। चिखली से लेकर सूरत तक का रास्ता अच्छा है, लेकिन सूरत की पब्लिक बेकार ड्राइविंग करती है। बार बार डिपर देना, हॉर्न्स बजाना, और ओवरटेक के लिए परेशां करना, यह सब बहुत चलता है। इस हाईवे पर सारा ही ट्रैफिक सूरत को पीछे छोड़ते ही ख़त्म हो गया। सूरत के बाद बस ट्रक ही ट्रक थे। क्योंकि आगे अंकलेश्वर आना था। 

    पुष्पा और बहादुर ने रात्रि भोजन लिया। और मैंने बस हाथ मुँह धोए। मैं नींद आने का जरा भी रिस्क लेना नहीं चाहता था। बढ़िया कड़क मावा जरूर से खाया। कुछ देर गाडी को भी रेस्ट दिया। सापुतारा के बाद से सतत गाडी चल ही रही थी। कहीं भी नहीं रुके थे हम। और इस सुरत के लोकल ट्रैफिक ने बहुत ज्यादा परेशां कर दिया था। अब आगे का सफर तो यूँ तो आसान था, लेकिन डर था की कहीं नींद न आने लगे। 

रात का एक्सप्रेसवे और अगले दिन की दिलायरी का वादा

    लगभग आधे पौने घंटे का ब्रेक ले लिया था। और अब हम चलने को तैयार थे। वही अपने स्वर्णिम चतुर्भुज वाले हाइवे पर। यूँ तो हमें अंकलेश्वर से ही वह दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस वे ले लेना चाहिए था। लेकिन गूगल देवी ने उलटा हमें अंकलेश्वर शहर में चक्कर कटवाए। लेकिन वह सही भी था। अंकलेश्वर से भरुच शहर का रास्ता लेना था हमें, और भरुच शहर से होते हुए दहेज़ वाले रोड से हमें वह दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे मिल जाना था। 

    भरुच शहर में लगभग हम रात के ग्यारह बजे घूम रहे थे। गूगल देवी हमें इधर से उधर, बम्प्स के मजे दिलवा रही थी। बार बार स्पीड ब्रेक होती थी। लेकिन हम लोग दहेज़ वाले रोड पर पहुँच गए आख़िरकार। मैंने मजे लेने के लिए पुष्पा से कहा, "क्या बोलता है, दहेज़ चले जाएं क्या?"

    "वहां क्यों जाएं भला?" पुष्पा को समझ नहीं आया। 

    "अरे, वहां से कल सवेरे की रो-रो फेरी पकड़ लेंगे। सीधे भावनगर में उतारेगी।"

    पुष्पा हँस पड़ा। मतलब यूँ नहीं तो यूँ एक दिन आपको बर्बाद करना ही है। दहेज़ से घोघा समंदर में जहाज चलता है। उसे रो-रो फेरी कहते है। रो-रो फेरी में ट्रक्स भी जाते है। तो अपनी तो छोटी सी कार है, आराम से चली जाएगी। यूँही बातों बातों में हम एक्सप्रेसवे पर चढ़ गए। पता नहीं क्या समय हो रहा था। शायद बारह बज गए होंगे। 

    आगे की कहानी अगले भाग में, अगले दिन में, अगली दिलायरी में। 

    शुभरात्रि। 
    २४/१०/२०२५

|| अस्तु ||


प्रिय पाठक !

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