बाहरी उम्मीदवार और स्थानीय राजनीति का द्वंद्व
प्रियम्वदा !
जब मेरे पास वोट देने का अधिकार नहीं था, तब एक बार मुझसे हुकुम ने कहा था, वोट कभी भी पक्ष देखकर नहीं दिया जाता, उमीदवार को देखा जाता है। यह बात मुझे आज भी याद है, और हर बार तब याद आती है, जब कोई उमीदवार पक्ष के कारण जीतता है। कईं बार ऐसा होता है, कि कोई उमीदवार बिना अपनी किसी काबिलियत के भी सिर्फ और सिर्फ पक्ष के बलबूते पर जीत जाता है, और उससे भी विचित्रता देखिए वह अपनी जीत का जश्न भी मनाता है।
मैथिली ठाकुर—एक नई राजनीतिक कथा
विकिपीडिया पेज के अनुसार 25 जुलाई 2000 को बिहार के मधुबनी के किसी गाँव में जन्मी मैथिलि ठाकुर हालफिलहाल तो दिल्ली में बसी है। भारती कॉलेज से B.A. की डिग्री हांसिल की है। और संगीत की प्रसिद्द गायिका है। यूट्यूब पर लाखों में उनकी फैन फॉलोविंग है। कुल 4 करोड़ की संपत्ति है, उनके हलफनामे के अनुसार। 2022 में लगभग 47 लाख की ज़मीन खरीदी है। इसी वर्ष बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें विधायक पद के लिए टिकिट दिया। और आश्चर्यपूर्ण तरिके से उन्होंने RJD के उम्मीदवार विनोद मिश्रा को 11730 वोटों के अंतर से हराया..!
अलीनगर की समस्याएं और भविष्य की आशंकाएँ
मुझे यह समझ नहीं आता है, कि कोई बाहर से आकर अपने क्षेत्र में विधायक बन जाए? कल को अलीनगर में किसी को विधायक का काम पड़ा तो क्या वे लोग दिल्ली जाएंगे? अपनी नई नवेली और नन्ही सी विधायक से मिलने के लिए? मुझे तो लगता है, उन्हें पता होगा कुछ अलीनगर में क्या क्या समस्याएं है? या फिर बस अलीनगर का नाम सीतानगर कर देने से उनकी सारी समस्याएं हल हो जाएंगी।
ऐसा भी नहीं है, कि मैथली बुरी है, या उसे अधिकार नहीं विधायक बनने का। वह पढ़ी लिखी है। राजनीती में नई है, तो गन्दी राजनीती से दूर रहेगी। BJP की लहर तो थी ही, वह नया चेहरा बनी। साफ़ छवि और सोशल मीडिया पर अच्छी पकड़, उसके लाभ में थी। और यह भी हो सकता है, कि विरोधी नेता की छवि ज्यादा खराब हो, इस लिए लोगो ने इस बाहरी उम्मीदवार को चुना हो।
राजनीति के पिछले उदाहरण—परेश रावल का केस
गुजरात विधानसभा में भी एक बार ऐसा हुआ था, प्रसिद्द अभिनेता परेश रावल ने चुनाव लड़ा था। पक्ष BJP जैसा मजबूत होने के कारण जीत भी गए थे। लेकिन समस्या बाद में यह हुई थी, कि परेश तो खुद फिल्मों में अभिनय के काम को लेकर मुंबई में रहते, और यहाँ विधानसभा क्षेत्र अपने विधायक के बगैर सुना पड़ा रहता। समाचार वालों ने खूब खरी-खोटी सुनाई थी उस समय। इस बार बिहार में भी कुछ ऐसा ही है। देखते है, क्या मैथली अलीनगर में शिफ्ट होती है, या फिर हरिओम...!
आज तो सवेरे उठा ही नहीं गया। जब आँखे खुली तब आठ बज रहे थे। फटाफट तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल पड़ा। काम तो कुछ खास था नहीं, है नहीं। सवेरे से बस रील्स देखी है। और दोपहर तक एक घर के काम के लिए फोन कॉल्स। अलुमिनियम डोर वाले को तो आज पकड़ ही लाया मैं। उससे नाप वगैरह दिलवाया, और एस्टीमेट ले लिया। एक दरवाजा, और एक खिड़की बनवानी है। यहाँ भी अब अच्छी महंगाई हो चुकी है, यह एस्टीमेट से पता चला। दोपहर को दरवाजे की डिज़ाइन पसंद करने के लिए मार्किट चल पड़ा।
हुकुम भी साथ थे। घर पर लंच करके दो बजे ऑफिस आ चूका था। एकाध दिन में गाँव का धक्का खाना पड़ेगा, और कुछ जरुरी कागज़ी कार्यवाही करवानी है। सोचा तो था कि फोन पर हो जाएगा, लेकिन नहीं होगा। रूबरू हाजिर होना पड़ेगा। चल पड़ेंगे। वैसे भी महाराष्ट्र घूमकर आया हूँ, तब से मन में घूमते रहने के ही ख्याल घूमते है।
ट्रक पर दिखा चेहरा—भिंडरांवाले की छवि पर विचार
अभी कुछ देर पहले ऑफिस से बाहर निकला था, रोड पर तीन ट्रक्स खड़े थे, पंजाबी ड्राइवर मालूम होते थे उनकी बोली और पहनावे से। सिख सरदार नहीं थे। उनमे दो ट्रकों की विंडो पर गुरमुखि में कुछ लिखा था, और साथ ही एक स्टीकर लगा था, जिसमे कोई सिख सरदार की तस्वीर बनी दिखती है, जिसके हाथ में तीर या तो छोटा सा भाला है। यह चित्र / स्टीकर मैंने बहुत सारे पंजाबी वाहनों पर बने देखे है। और वह तस्वीर देखकर मुझे तो एक ही इंसान याद आता है, जरनैल सिंह भिंडरांवाले।
इस भिंडरांवाले और ऑपरेशन ब्लू स्टार पर पहले में गुजराती में सविस्तृत लिख चूका हूँ। (यहाँ पढ़ सकते है, अगर गुजराती आती है तो।) जरनैल सिंह भिंडरांवाले एक धार्मिक गुरु जरूर था, लेकिन साथ ही उसके आसपास हथियारबंद लोग भी चलते थे। हथियार भी सेल्फ लोडिंग राइफल्स, स्टेन गन, लाइट मशीन गन्स और ग्रेनेड्स भी। कुछ लोग मानते है, जरनैल सिंह ने कभी खालिस्तान की मांग नहीं की। लेकिन उनके एक इंटरव्यू में उसने कहा था, कि "दिल्ली अगर खालिस्तान देती है, तो मैं थैंक यू जरूर कहूंगा।" मतलब खालिस्तान को मना नहीं करता वह। देश में रहकर देश का अलग टुकड़ा माँगना..?
आज भी कितने ही पंजाबी लोग उसे फोलोव करते है, जो इस भारत भूमि को खंडित होता देखना चाहता था। और यह एक धर्मगुरु भी था। कितने सारे लोगो का आदर्श। अच्छे काम भी किये थे, शराब बंदी, देवस्थान की मर्यादा रखना, वगैरह वगैरह..! लेकिन उसकी एक अलगाववादी की छाप भी बन चुकी है। उसने भारतीय सेना का विरोध किया था, आंदोलन करना चाहता था, तो शांतिपूर्ण करता, हथियार उठाना जायज है?
खेर, मुझे यह भी समझ नहीं आता, लोग आदर्श के स्थान पर ऐसे लोगो को क्यों बिठा देते है? पंजाब में बहुत सारी महान हस्तियां हुई है। गुरु नानक, गुरु गोविंदसिंह, महाराजा रणजीतसिंह.. और भी बहुत सारे.. लेकिन लोग उन्हें चुनते है, जो बस अपनी बोली से सम्मोहित कर ले। कितने ही लोग आज भगवान् की उपाधि पा चुके है। पिछड़ी जाती के लोग 'भीमराव अंबेडकर' को भगवान मानने लगे है। कुछ लोग वह प्रसिद्द वक्ता 'रजनीश ओशो' को भगवान कहने लगे है। गुजरात में कुछ आदिवासी समुदाय 'बिरसा मुंडा'को भगवान कहने लगे है।
बिरसा मुंडा और उलगुलान की क्रांति
बिरसा मुंडा तो बड़ा प्रसिद्द नाम है। उन्होंने उलगुलान किया था। उलगुलान माने महान आंदोलन। 1899-1900 में झारखण्ड में ज़मीनों पर बाहरी लोगो का हक़ बढ़ने लगा। आदिवासियों को अपनी महेनत का भी फल नहीं मिल रहा था। तब मुंडा जाति के बिरसा ने कमान संभाली। ब्रिटिश दमन, मिशनरीज़ का धर्मान्तरण, बिना मोल के मजदूरी के खिलाफ, बिरसा ने आदिवासी लोगो की फ़ौज तैयार की। और अंग्रेजो के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। लोगो को एक नायक की ज़रूरत थी। और बिरसा को लोगो ने भगवान की उपाधि दे दी। जनवरी 1900 में बिरसा पकड़ा गए, और जेल में ही उनकी मृत्यु हो गयी।
दिनभर का निजी ब्योरा—दिलायरी का रंग
वे जरूर से क्रांतिकारी थे, उन्होंने अपने लोगो की आवाज़ उठायी थी, लेकिन उन्हें भगवान् का पद? भगवान, ईश्वर, परमात्मा.. इन शब्दों के अलग अलग अर्थ है, लेकिन तात्पर्य या उद्देश्य एक जैसा है। छोड़िये, मैं इस विषय पर कुछ लिखूंगा, तो लोग यह तर्क भी दे देंगे, कि अगर परमात्मा देवकी-वासुदेव के घर बालक के रूप में जन्म कर कृष्ण भगवान बन सकते है, तो फिर यह बिरसा, ओशो या भीमराव क्यों नहीं? और फिर मैं इसके प्रत्युत्तर में कुछ और उत्तर दूंगा.. यह वाद-प्रतिवाद कहाँ जाकर रुकेगा, यह मैं समझता हूँ, लेकिन लिख नहीं सकता।
शुभरात्रि।
१७/११/२०२५
|| अस्तु ||
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Saras ચર્ચા વર્તમાન બાબત ની મૈથિલી ઓર bhindarvale કી બાત ભી મસ્ત
ReplyDeleteThank You..!
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